ब्लॉग मित्र मंडली

9/5/12

आंसू थे, अफ़साने थे !

आज एक नज़्म प्रस्तुत है
कुछ बड़ी है कृपया, धैर्य से पढ़लें!
इसमें आपके भी मन के भाव संभव हैं

गुज़रे वक़्त के ख़त

(यादों का क़ासिद = यादों का डाकिया)
इक रात को यादों के क़ासिद ने कुंडा दिल का खटकाया !
नींद उचट गई दिल की, इतनी रात गए ये कौन आया ?!
तनहाई की बाहों से निकल' अंगड़ाई ले' कर अलसाया !
और आंखें मलते' सुस्तक़दम, दरवाज़ा खोलने दिल आया !
क्या देखा ; गुज़रे वक़्त के ख़त देहरी में धंसे पड़े हैं !
और  कई हादसे, कई हसीं पल, साथ ही साथ खड़े हैं !
***
जब पहला ख़त ले' पढ़ने बैठा; हाय रे, जी भर आया !
सर माथा लाड़ से अम्मा-बाबा ने चूमा, सहलाया !
जा पहुंचा सपनों के गांव में, जहां रात-दिन न्यारे थे !
मां-बाबा का सर पर साया, मुट्ठी में चांद-सितारे थे !
चहकता बचपन, महकता आंगन, हंसता-खेलता जीवन था !
क्या ख़ुशहाली थी ! वो घर इक जन्नत था, हसीं चमन था !
न दिल पर कोई बोझ न ग़म; हर मौसम बड़ा सुहाना था !
ख़ुशियां ही ख़ुशियां दामन में ! सपनों-सा हसीं ज़माना था !
***
पर,  धीरे-धीरे जाने क्यों वह ऊपरवाला रूठ गया ?
बांध रखा था प्यार से जिसने, वो धागा ही टूट गया !

ज्यों आंधी के संग उड़ जाते हैं पत्ते टूट के डाली से !
उस गुलशन का अंज़ाम यही हो गया बिछुड़ कर माली से !
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भावों में डूबी इस चिट्ठी ने, दिल को कई एहसास दिए !
अनचाही-चाही यादों के रंग-भीगे लम्हे ख़ास दिए !
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अगला ख़त छूते ही घुल गई इत्र की गमक हवाओं में !
संतूर की मीठी झन-झन सुनाई देने लगी फ़ज़ाओं में !
अच्छा! तो यह उसका ख़त है ! सबसे छुपा कर रखना है !
जब घर में सब सो जाएंगे, तब चुपके-छुपके पढ़ना है !
जाने कब वो आ बैठी, पहलू में मेरे चुपके से !
जिसके साथ खुली आंखों, कुछ सपने मैंने देखे थे !

उस कमसिन नाज़ुक गुड़िया को न भूल सकूंगा जीवन भर !
प्यार दिया जिसने जी भर कर, तड़पाया भी जी भर कर !
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पंख लगा इक घोड़ा बन कर वक़्त गुज़रता चला गया !
आख़िर वह दिन आया, जब तक़दीर के हाथों छला गया !

फिर शहनाई थी, मातम था, और आंसू थे, अफ़साने थे !
फिर मिलन-जुदाई की घड़ियां थीं, और बेबस दीवाने थे !
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हाय रे ज़ालिम क़ासिद ! तू सारे ख़त ऐसे ही लाया ?
क्या बीतेगी पढ़-पढ़ कर दिल पर रहम तुझे कुछ न आया ?
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कांपते हाथों' दिल ने फिर हर ख़त पे निगाह उड़ती डाली !
कहीं दग़ा, नाकामी, कहीं ख़ुदग़रज़ी की छाया काली !
कुछ तड़पते अरमां, बुझी उम्मीदें, तो कुछ टूटे सपने थे !
ग़ैर न थे लिखने वाले भी, सबके ही सब अपने थे !
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अभी तलक ना ख़त्म हुआ कुछ वही सिलसिला जारी है !
वही हज़ारों रात से लंबी रात अभी तक जारी है !
न होंगे ख़त्म ख़ुतूत कभी कॅ इनका आना जारी है !
दिल का दर्द भी जारी है ! अभी ज़िंदगी जारी है !
राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
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