ब्लॉग मित्र मंडली

15/8/13

न शान-ए-हिंद में गद्दारों की गुस्ताख़ियां होतीं


नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे

चमन के सरपरस्तों से न गर नादानियां होतीं
न फिर ये ख़ार की नस्लें हमारे दरमियां होतीं

मुख़ालिफ़ हैं ये सच-इंसाफ़ के ; उलझे सियासत में
ख़ुदारा , पासबानों में न ऐसी ख़ामियां होतीं

असम छत्तीसगढ़ जम्मू न मीज़ोरम सुलगते फिर
न ही कश्मीर में ख़ूंकर्द केशर-क्यारियां होतीं

निभाती फ़र्ज़ हर शै मुल्क की गर मुस्तइद हो'कर
धमाके भी नहीं होते , न गोलीबारियां होतीं

सियासतदां जो होते मर्द , उनका खौल उठता ख़ूं
अख़ीरी जंग की फ़िर पाक से तैयारियां होतीं

न हिजड़ों को बिठाते हम अगर दिल्ली की गद्दी पर
न चारों ओर बहते ख़ून की ये नालियां होतीं

वतन के वास्ते राजेन्द्र ईमां दिल में गर रखते
न शान-ए-हिंद में गद्दारों की गुस्ताख़ियां होतीं

-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
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