ब्लॉग मित्र मंडली

28/4/11

ढूंढ़ कहां घर तेरा है ?


आज मेरा एक पुराना गीत प्रस्तुत है

ढूंढ़ कहां घर तेरा है ?

ढूंढ़ कहां घर तेरा है ?
यह जग रैन-बसेरा है !

जादू है, भ्रम-सपना है !
कौन तुम्हारा अपना है ?
मीत किसी का कौन यहां ,
हवन अकेले तपना है !
मिथ्या मेरा-मेरा है !!
यह जग रैन-बसेरा है !!
ढूंढ़ कहां घर तेरा है ?

छल-धोखा है , माया है !
सारा जगत पराया है !
स्वारथ के रिश्ते-नाते ,
पग-पग जाल बिछाया है !
जग छलियों का डेरा है !
ढूंढ़ कहां घर तेरा है ?!
यह जग रैन-बसेरा है !!

देख, किसी की आस न कर !
साये का विश्वास न कर !
होगी कोई किरण कहीं ,
जी को व्यर्थ उदास न कर !
माना , गहन अंधेरा है !
ढूंढ़ कहां घर तेरा है ?!
यह जग रैन-बसेरा है !!
-राजेन्द्र स्वर्णकार
(c)copyright by : Rajendra Swarnkar



कुछ वैराग्य-सा है मन में !
बहुत उखड़ा हुआ है मन इन दिनों !
क्षमाप्रार्थी हूं
आप सब के यहां पहुंच भी नहीं पा रहा हूं ।
आपकी Mail पर भी ख़ास ध्यान नहीं दे पा रहा हूं ।
आपकी टिप्पणियों के लिए आभार भी व्यक्त नहीं कर पा रहा हूं ।
क्षमा कर दीजिएगा

मेरे प्रति आपके स्नेह और आशीर्वाद की सर्वाधिक आवश्यकता है अभी
{ मेरी माताजी अस्वस्थ हैं }

9/4/11

खड़ा हो सामने इंसां , उसे ठोकर तो मत मारो


"आज शस्वरं हो गया है एक वर्ष का" 

पहले एक ग़ज़ल
खड़ा हो सामने इंसां उसे ठोकर तो मत मारो

करो यह जिस्म छलनी , रूह के अंदर तो मत मारो
मेरे बन कर , मेरे दुश्मन से ही मिल कर तो मत मारो
मेरी भी है कोई इज़्ज़त , भरम रहने दो कुछ मेरा
चलो , घर में मुझे मारो ; मुझे बाहर तो मत मारो
गला मेरा दबादो , घौंपदो ख़ंजर या सीने में
मेरी नाज़ुक रगें तुम रोज़ छू - छू'कर तो मत मारो
न मुंह से बेज़ुबां , ज़ुल्मो-सितम पर कुछ भी बोलेंगे
कभी मारा  चलो … हर रोज़ या अक्सर तो मत मारो
यक़ीं इंसानियत से ही किसी का अब न उठ जाए 
बनो रहज़न ; किसी को राहबर बन कर तो मत मारो
बहुत सुकरात ईसा और गांधी मार आए तुम
बचे गांधी के बाकी तीन ये बंदर तो मत मारो
हक़ीक़त का तो बिच्छू भी छुआ जाता नहीं तुमसे
ख़यालों के बड़े सौ सांप , दस अज़गर तो मत मारो
लगे अब चांद - तारे : दाल - रोटी ; क़ीमतें ऐसी
अरे ! मज़्लूम-मुफ़्लिस ढूंढ़ कर घर-घर तो मत मारो
इसे ता'लीम कह ' बच्चों को अब कितना बिगाड़ोगे
शरम भी आंख की , मन का भी इनका डर तो मत मारो
जिसे चाहो , उसे समझो ख़ुदा … सजदे करो , बेशक
खड़ा हो सामने इंसां , उसे ठोकर तो मत मारो
थमा मुश्किल से तूफ़ां , शांत हैं लहरें - किनारे अब
अभी ख़ामोश - सी इस झील में कंकर तो मत मारो
बुरा है या भला …जो भी है , कुछ पैग़ाम तो लाया
ख़ता राजेन्द्र क्या ? गर है वो नामावर , तो मत मारो
राजेन्द्र स्वर्णकार
(c)copyright by : Rajendra Swarnkar
~ ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है ~


    
**10अप्रैल 2011 को शस्वरं की प्रथम वर्षगांठ है**

हंसते-गुनगुनाते कुलांचें भरते हुए एक वर्ष बीत गया 
अब तक कुल प्रविष्टियां 45
कुल टिप्पणियां 2370 से अधिक
कुल विजिट 9700 से अधिक
समर्थक ( followers ) 262
सारा श्रेय है आप सबको
आपके स्नेह समर्थन सहयोग से ही है
शस्वरं की सार्थकता और सफलता
( प्रथम प्रविष्टि सुस्वागतम् में किए गए किसी वादे पर ,
अथवा आपकी किसी अपेक्षा पर खरा न उतरा हूं तो
साधिकार मुझे अपना मानते हुए मन की बात कहें  )
हमेशा रहा हूं , रहूंगा हृदय से आभारी और कृतज्ञ
आशा ही नहीं , पूर्ण विश्वास है
आगे भी सदैव मिलता रहेगा आपका प्यार और आशीर्वाद
चैत्र नवरात्रा , दुर्गा अष्टमी , रामनवमी 
की 
बधाइयां ! मंगलकामनाएं ! शुभकामनाएं !

4/4/11

नव संवत्सर

नव संवत्सर
नव संवत् का रवि नवल, दे स्नेहिल संस्पर्श !
पल प्रतिपल हो हर्षमय, पथ पथ पर उत्कर्ष !!
चैत्र शुक्ल शुभ प्रतिपदालाए  शुभ  संदेश !
संवत् मंगलमय ! रहे नित नव सुख उन्मेष !!
मधु मंगल शुभ कामनानव संवत्सर आज !
हर शिव वांछा पूर्ण हो  हर अभीष्ट हर काज !!
नव संवत्सर पर  मिलें  शुभ सुरभित संकेत !
स्वजन सुखी संतुष्ट हों, नंदित नित्य निकेत !!
जीव  स्वस्थ संपन्न  होंहों  आनंदविभोर !
मुस्काती  हैं  रश्मियांनव संवत् की भोर !!
हर्ष व्याप्त हो  हर दिशा, ना  हो कहीं विषाद !
हृदय हृदय  सौहार्द होना हों कलह विवाद !!
हे नव संवत् !  है हमें  तुमसे  इतनी  आस !
जन जन का अब से बढ़े  आपस में विश्वास !!
-राजेन्द्र स्वर्णकार
(c)copyright by : Rajendra Swarnkar