28 जून 2011 को सुबह 10-11 बजे मोबाइल देखा तो एक sms आया हुआ था , जो भाई नदीम अहमद ‘नदीम’ द्वारा सवेरे 7: 26:55 am बजे भेजा गया था
। खोल कर पढ़ा तो सन्न रह गया …दुबारा पढ़ा …नीचे भाग कर गया । दैनिक राजस्थान पत्रिका अख़बार मेन गेट के पास
मोटरसाइकिल के सहारे अभी भी वैसे ही पड़ा था जैसे हॉकर द्वारा फेंक कर जाने के बाद प्रायः हमेशा होता है ।
… ख़बर तो नहीं छपी थी … लेकिन परिवार वालों
द्वारा अपने प्रियजनों के मरने की सूचना वाले विज्ञापन होते हैं उससे अगले पन्ने
में अलग से छपा चित्र देखते ही sms की बात सच
साबित हो गई ।
आंखें छलछला उठीं … … …
क्या सचमुच निसार भाई नहीं रहे …
… … !
पिछले महीनों में मेरी माताजी का स्वास्थ्य सही न रहने के कारण न
तो मैं निसार भाई के
यहां जा पाया था , और न
ही यह भी याद आ रहा कि अक्सर आने वाले उनके मोबाइल कॉल का सिलसिला कब ख़त्म हुआ …
… …
लगभग दस-बारह महीने पहले रहमान भाई ( निसार भाई के 25 वर्ष से भी
अधिक पुराने मित्र/शागिर्द ) द्वारा अपना मकान बेच कर जयपुर जा बसने के बाद से निसार भाई का मेरे घर आना भी नहीं हुआ
क्योंकि रहमान भाई ही अपनी गाड़ी पर उनको ले आते थे । मैं पहले की तरह आठ-दस हफ्ते
से उनके यहां चला जाता … उनके फोन तो जब-तब मिल ही
जाते थे … ( मोबाइल में एकाध वार्तालाप की
रिकॉर्डिंग सुरक्षित है … उनके जाने के बाद उनकी
आवाज़ को उनके ख़ास अंदाज़ में सुनते वक़्त हर बार आंखें भर आती हैं …)
मैं बीकानेर के साहित्यिक कार्यक्रमों से वर्ष 1999 के पूर्वार्द्ध
के बाद जुड़ा था । पता नहीं कितने अनजान लोगों से संपर्क बढ़ता ही गया । शनिवार , 30 जून 2000 को प्रज्ञा संस्थान द्वारा मेरे प्रथम एकल काव्य पाठ से पहले
निसार भाई सहित असंख्य साहित्यिक अभिरुचि और समझ रखने वाली हस्तियों का मैं प्रिय
पात्र बन चुका था । निसार अहमद अनजान साहब को निसार भाई के रूप में मैंने नौगजा पीर दरगाह में आयोजित एक मज़हबी तरही मुशायरे में
शिरक़त के बाद एक दिन बी सेठिया गली में मुलाकात के बाद जाना । वे किसी चाय की
दूकान के बाहर पट्टी पर बैठे थे । मैं साइकिल पर उधर से निकला तो एक तेज़ आवाज़ –‘अरे लाला राजेन्द्रजी ! रुकिये जनाब !’ सुन कर
ठहर गया था । निसार भाई ने एक अन्य कविगोष्ठी में मेरे द्वारा पढ़ी गई एक ग़ज़ल का शे’र -
“ मुंह पर सुन कर दाद ओ नादां शाइर यूं महज़ूज़ न हो
मुमकिन है वह शोर हो गाली , वह तेरी वा’वाह न हो ”
हूबहू सुना कर मुबारकबाद देते हुए कहा – ‘इसमें आपने महज़ूज़ का इस्तेमाल बहुत ख़ूबसूरती से किया … ’
उनकी याददाश्त कमाल की थी ।
चाय पिलाने के साथ उन्होंने अपनी जेब में लगे रहने वाले तीन-चार
पेन में से एक निकाल कर मुझे देते हुए कहा कि -
‘लाला , जिसमें क़लम की इज़्ज़त रखने की
कुव्वत और सलाहियत नज़र आती है उसे मैं क़लम भेंट किया करता हूं …’
मैंने कानों में इत्र के फाहे डाल रखे थे … उन्होंने ख़स की गंध की तारीफ़ की तो मैंने इत्र की फुरैरी निकाल कर उनके
कान में लगा दी । उन्होंने कहा कि आइंदा कैसे काम चलेगा … मैंने अपने घर का ठिकाना समझाते हुए आने का आमंत्रण दे दिया । …और इस तरह हम दोनों का एक-दूजे के यहां
आवाजाही का सिलसिला बन गया ।
निसार भाई के साथ
मेरा रिश्ता बहुत निष्कपट और आत्मीयता से भरपूर था , जहां औपचारिकता का नामो-निशान
नहीं था । उम्र में मुझसे बड़े होने के बावजूद ऐसा एक भी दिन मुझे याद नहीं आ रहा
जब मैंने उनके पांव छुए हों … (जबकि अपने पारिवारिक संस्कारों के कारण ऐसे अनेक
कुटिल बुजुर्गों के भी पांव छूते रहना पड़ता है , जिनके स्पष्ट दोगले व्यवहार के
कारण उनके प्रति सच्ची श्रद्धा और सम्मान की भावना मन से प्रस्थान कर चुकी है ।) …और
उनका मेरे साथ अपनत्व और विश्वास का नाता था कि बहुत दिन मुलाकात या वार्तालाप को
हो जाते तो मोबाइल पर नाराज़गी जताते हुए अधिकारपूर्वक कहते –‘ ख़ुदा के बंदों ,
ज़िंदा हो तो सबूत तो दिया करो … … …’ शीघ्र ही सामान्य हो’कर सबकी ख़ैरियत पूछने
लगते , ताज़ा कलाम सुनाते , सुनते … और जल्द मिलने की बात करते ।
… और छोटा होने के
उपरांत भी मुझे इतना मान देते कि उनके यहां जाने पर वापसी के वक़्त मना करने के
बावजूद मुझे गली के नुक्कड़ तक छोड़ने आते । कभी उन्हें पता चल जाता कि उनके यहां मुझे मेरे बच्चों में से कोई छोड़ने आया था , तो यह समझ कर कि कहीं मेरी तबीयत नरम न हो इसलिए अपने भतीजों में से किसी
को गाड़ी पर मुझे मेरे घर छोड़ कर आने को भेजते ।
सिगरेट पिया करते थे
… लेकिन मुलाकात के दौरान हमेशा पूछ्ते कि धुएं से मुझे परेशानी तो नहीं हो रही …
।
वे मेरी मां को काकी कहते थे । जब भी घर आते उन्हें सलाम कहते , पांव छूते , घर में सबको गिन गिन कर
टॉफियां देते । मुझसे मेरे गीत-ग़ज़लें तरन्नुम में सुनते … मेरे एक गीत “ तुम जीवन की नव तरुणाई हो , और मैं ढलता यौवन हूं …” की अक्सर फ़र्माइश
करते । मेरी तारीफ़ भी करते , यह भी कहते कि –
‘तुम क्या समझते हो मैं तुम्हारी रचनाएं सुनने आता हूं ?
मैं तो काकी के दर्शन के लिए आता हूं … मेरी मां बिलकुल ऐसी ही थी … मुझे
तुम्हारी मां में अपनी मां मिल जाती है … ’
निसार भाई से प्यार बढ़ा
तो बढ़ता ही चला गया …
शुगर का मर्ज़ पाल रखा था उन्होंने । मेरी श्रीमतीजी को आते ही कह देते ‘बेटा , मेरे लिए बिना चीनी की चाय लाना ’ …दो-चार बार के बाद तो श्रीमतीजी को ख़ुद ही याद रहने लगा , वह निसार भाई के कप में निशान के लिए चम्मच डाल कर ले आती ।
निसार भाई बिना चीनी
वाली चाय को चम्मच से हिलाने लगते …
मैं और रहमान भाई हंसते कि चीनी है ही नहीं , क्या हिला रहे हैं … कहते- ‘मेरी बहू का प्यार कम मीठा थोड़े ही है … अल्लाह उम्र दराज़ करे , मेरे छोटे भाई के घर में प्यार-मुहब्बत-दौलत-बरकत में दिन-रात इजाफ़ा हो …’
वे जब भी फोन करते मेरी मां को सलाम के साथ मेरे तीनों बेटों गौरव , वैभव , विवेक का नाम लेना नहीं भूलते ।
मेरे बड़े बेटे के विवाह के बाद उन्हें हमारे परिवार की नई सदस्य , हमारी बहू रेशम का नाम भी याद
रहने लगा …और दिव्यांशी के रूप में मेरे घर पोती आ गई
तो उसका नाम भी ।… उनके यहां जाता तब भी गिन कर आठ
टॉफियां ज़रूर देते … घर आने पर नन्ही दिव्यांशी की कम्प्यूटर पर वीडियो और फोटो देखते हुए
अचानक उठ खड़े होते , जेब से चॉकलेट निकाल कर फोटो
में दिव्यांशी के मुंह से लगा कर ख़ुश होते , कहते –
‘जनाब राजेन्द्रजी ! आप तो दादा हैं बस , मैं बड़ा दादा हूं दिव्यांशी का । ‘
आते तो वे अधिकतर शाम के बाद ही थे । संयोग ऐसा रहा कि उनकी
दिव्यांशी से मुलाकात नहीं हुई कभी । उसके जन्म के बाद वे जब भी आए … संयोग से वह ननिहाल गई मिली । …लेकिन एक
भी फोन-मोबाइल वार्ता ऐसी नहीं रही जब उन्होंने मेरे पूरे परिवार के साथ दिव्यांशी को याद न किया हो । एक बार
उन्होंने कहा कि- 'अब दिव्यांशी लगभग डेढ़-पौने दो साल की हो
जाएगी तब ही आना होगा मेरा आपके यहां । …या कभी भतीजे (
मेरे किसी बेटे को ) को गाड़ी ले’कर मुझे लेने भेज दो तो आ
पाऊंगा … ।' ( मैं बतादूं कि
निसार भाई भी स्कूटर-मोटरसाइकिल नहीं चलाते थे , मैं
भी नहीं जानता …)
लेकिन, अब वे हमेशा के लिए विदा ले’कर जन्नतनशीं हो चुके हैं
… … …
आज मैं याद करने बैठा हूं तो एहसास हो गया कि निसार भाई के मेरे
साथ और मेरे परिवार के साथ जैसे आत्मीय संबंध , जितने इंसानी त’अल्लुकात रहे हैं , उनके बारे में लिखना सहज नहीं ।
एक इंसान के रूप में निसार भाई विशुद्ध इंसान थे । मुसलमान की
कट्टर छबि उनको छू भी नहीं गई थी । उन्हें गीता-रामचरितमानस के श्लोक और छंद ही
नहीं , वेदों की ॠचाएं भी याद थीं । एक बार
उन्होंने मुझे रावण रचित शिव तांडव स्तोत्र सुनाया तो मैं हतप्रभ रह गया । पाक
क़ुर्आन की आयतें और फ़ारसी में लिखे का अर्थ तो कई बार प्रसंगवश बताते ही थे । ग़ज़लों में सांप्रदायिक सौहार्द के भाव और उर्दू शब्दों के बीच
ख़ूबसूरती से हिंदी क़ाफ़ियों को नगीने की तरह जड़ देने का उनका विशेष अंदाज़ कुछ
दक़्यानूसों को चुभ भी जाता था ।
स्वयं को कुटिल लॉबियों के अनुरूप वे भी कभी नहीं ढाल सके थे … स्वयं के लिए कहते – ‘मैं तो औघड़ बाबा हूं , मुझसे बात करना हर किसी के बस का रोग नहीं … !’
वैसे , शाइरी में रुचि रखने वाले कई हिंदू-मुस्लिम नौजवान
उनसे इस्लाह लेने आया करते थे …
मस्तमौला ऐसे थे कि घर
की प्रिंटिंग प्रेस होने के बावजूद भी अपना लिखा हुआ किताबों की शक्ल में लाने को
कभी उतावले नज़र नहीं आए । … और तो और , अब तक उनकी एकमात्र प्रकाशित पुस्तक हादसाते-हयात उनके भाइयों-भतीजों द्वारा छाप कर तैयार कर देने के बावजूद भी उन्होंने
उसे किसी अकादमी, संस्था या व्यक्ति विशेष तक पहुंचा कर फ़ायदा उठाने की कोई कोशिश नहीं की । 1999 में उनसे परिचय के
बाद उनके यहां जाना शुरू हुआ तो बिना बाइंड की हुई हादसाते-हयात देख कर मैं और रहमान रूहानी कहा करते कि इसका इज्रा ( लोकार्पण ) तो करालें … हमारे
बार-बार आग्रह के बाद ही 18 मई 2003 को इस पुस्तक का लोकार्पण कार्यक्रम मशहूर
शाइर जनाब के के सिंह मयंक की उपस्थिति में संपन्न हुआ । इस कार्यक्रम में उनके ख़ास इसरारो-मुहब्बत
के कारण मैंने उनकी दो रचनाओं की सस्वर प्रस्तुति दी ।
यहां इस अक्खड़ और कठोर–से
लगने वाले इंसान के कोमल कलेजे की एक झलक प्रस्तुत करना चाहता हूं । मेरी तरन्नुम
और गीत-ग़ज़लों की धुनें बनाने के मेरे विशेष गुण के कारण एक बार उन्होंने रहमान भाई की मौजूदगी में अपनी लिखने की मेज के पीछे से
एक बिना ज़िल्द की किताब निकाल कर कोई ग़ज़ल गुनगुनाने को कहा ।
वह हादसाते हयात देखने का मेरा पहला मौका था ।
मैंने पन्ने पलटे … हर
रचना बह्र में , हर रचना मयारी !
मैंने छोटी बह्र की ग़ज़ल चुनी और गाने लगा –
‘आज उनको सलाम कर आए
ज़िंदगी को तमाम कर आए
चंद ख़ुशियां जो पास थीं अपने
आज वो उनके नाम कर आए
सुबह होते ही हम गए थे वहां
बातों-बातों में शाम कर आए ’
हम तीनों उनके कमरे में पलंग पर बैठे थे । ग़ज़ल पूरी होते होते अचानक निसार भाई ने किताब मेरे हाथ से छीन कर सामने दीवार की तरफ़ फेंक दी । मैं और रहमान दोनों चौंक गए । उनके चेहरे की तरफ़ देखा … निसार भाई रो रहे थे । कुछ लम्हे माहौल में
ख़ामोशी बनी रही … फिर निसार भाई ने कहा – ‘ लाले ! रुला दिया तुमने …पत्थर को पिघला दिया !
मेरी ही रचना का अर्थ अच्छी तरह से आज समझ आया मुझे …
’
… इस घटना को तथा निसार भाई की और बहुत सारी बातों को याद
करते हुए मन भर आता है । इसी तरह एक रविवार को तय हुआ कि आज , पूरा दिन सोने वाले निसार भाई सोएंगे नहीं , हम तीनों रहमान भाई के यहां इकट्ठा हो’कर आपस में कलाम सुनेंगे-सुनाएंगे । छुट्टियों के
कारण रहमान भाई के बीवी-बच्चे जयपुर ननिहाल गए हुए थे । मैं तय समय से घंटा भर से
भी अधिक लेट पहुंच पाया । निसार भाई भी पहुंचे ही थे । रहमान भाई ने गोष्ठी देर शाम तक चलने की उम्मीद में
समोसे नमकीन का पूरा बंदोबश्त पहले ही किया हुआ था । चाय बन रही थी तब तक
पाकिस्तान के कई ग़ज़लकारों-गायकों की सीडी लगादी प्लेयर में … यह सिलसिला कुछ लंबा खिंच गया ।
मैंने हबीब वली मोहम्मद के गाए एक-दो नग़्मों के कुछ बंद गुनगुनाए … निसार
भाई अपने सोफे पर से उठे … बिना कुछ बोले चप्पल पहनी , कमरे के
दरवाज़े से निकल कर खिड़की खोल कर बाहर चले गए … … … । वे सिगरेट पीते थे , हम सोचते रहे शायद सिगरेट लाने गए होंगे … लेकिन दो-तीन घंटे
जब तक हम आपस में सुनते-सुनाते रहे वे नहीं आए … और निशस्त अधूरी ही रही … … …
शब्द और स्वर की गहराई उन पर बहुत असर करती थी ।
निसार भाई के साहित्यिक
अवदान के बारे में ईमानदारी से सही सही आकलन करना बहुत बड़ी चुनौति है … पांच हज़ार से अधिक ग़ज़लें , गीत क़त्आत , हम्दो-ना’त , मर्सिया , दोहे कितना कुछ अदबी ख़ज़ाना उनकी डायरियों
में है … । उनकी कई ग़ज़लों में सौ-सवा सौ शे’र से ज़्यादा भी हैं , नज़र मौजू पर
तो उनका पूरा दीवान है । अभी तक उनका मह्ज़ 151 ग़ज़लियात का एक मज्मूआ हादसाते-हयात मंज़रे-आम तक पहुंचा है
। उनकी पचासों डायरियों में उनका जीवन भर का अप्रकाशित
सृजन अगर ग़लत और मतलबपरस्त हाथों में चला गया तो उनके साथ बहुत बड़ी नाइंसाफ़ी हो
सकती है ।
जिन लोगों ने निसार भाई को उनके जीते जी किसी छोटे-से प्रशासनिक-अकेडमिक नाम-इनआम-सम्मान तक से
महरूम रखा और रखाया , सुर्खियों में बने रहने का हुनर जानने
वाले ऐसे लोगों के माध्यम से उनके हक़ में अब भी इंसाफ़ होगा , इसके कम ही आसार हैं।
आए दिन साहित्यिक आयोजनों का दम भरने वाले बीकानेर के अंदर के एक
अलग ‘महान बीकानेर’ द्वारा सच्चे गुणियों को जीते जी नकारने , उन्हें
नाम-इनआम तथा साहित्यिक फ़ायदों-अनुदानों से हरसंभव तरीके से दूर रखने की 'महान
परम्परा' निसार भाई जैसे
पांच हज़ार से अधिक ग़ज़लों का सृजन करने वाले रचनाकार की मृत्यु के संदर्भ में भी
कायम रही । तथाकथित कला-साहित्य से संबद्ध
पचासों संस्थाओं और तथाकथित सैंकड़ों बुद्धिजीवियों
में से किसी को इस अद्वितीय शायर को मरणोपरांत श्रद्धांजलि देने के लिए शोकसभा के
लिए आज चौदह दिन बाद भी न वक़्त है न इच्छा । हालांकि गुणी किसी एहसान का मोहताज़ जीते जी भी नहीं होता … !
मलाल इतना सा है कि मेरे प्यारे शहर में सच्चे गुणी को मान-सम्मान इनआम-इकराम तो दूर … , उसके हक़ की पहचान तक से उसे वंचित किया जाता है … …
…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
मोबाइल : 09314682626