ब्लॉग मित्र मंडली

27/8/10

अभी रमज़ान के दिन हैं ! ईश्वर - अल्लाह एक हैं !

* अभी रमज़ान का पवित्र महीना है *
* रक्षा बंधन का पवित्र पर्व अभी कुछ दिन पूर्व था *
* आज तीज का त्यौंहार है *
 * श्री कृष्ण जन्माष्टमी आने को है *
* फिर ईद आ जाएगी *
*** और भी बहुत सारे पर्व और त्यौंहार हैं ***
सभी पर्वों , त्यौंहारों , उत्सवों के लिए 
शुभकामनाएं !  मंगलकामनाएं !!

मां सरस्वती की असीम कृपा से एक रचना लिखी है 
आप सबके साथ बांट रहा हूं ।







अभी रमज़ान के दिन हैं !


भुलादे रंज़िशो - नफ़रत , अभी रमज़ान के दिन हैं !
तू कर अल्लाह से उल्फ़त , अभी रमज़ान के दिन हैं !
इबादत कर ख़ुदा की , बंदगी  बंदों की ; करले तू
रसूलल्लाह से निस्बत , अभी रमज़ान के दिन हैं !
तरावीहो - इबादत , बंदगी , हम्दो - सना , रोज़े ,
दुआओं में निहां शफ़क़त , अभी रमज़ान के दिन हैं !
रसूलल्लाह ज़ुबां पर , रूह में अल्लाह  ही अल्लाह
क़यामत तक न हो क़िल्लत , अभी रमज़ान के दिन हैं !
रहमतो - बरकतें करता अता अल्लाह यूं हरदम 
अभी है बारिशे - रहमत  , अभी रमज़ान के दिन हैं !
इबादत की मज़ूरी मग़फ़िरत है , और मसर्रत है
मिले सत्तर गुना उजरत , अभी रमज़ान के दिन हैं !
भलाई, नेकियों, ईमान, सच, इंसानियत पर चल , 
मिले, ना फिर मिले मोहलत , अभी रमज़ान के दिन हैं !
न अब तक बन सका इंसान गर तू आदमी हो'कर
है मौक़ा' बाद इक मुद्दत , अभी रमज़ान के दिन हैं !
है किस मेयार का इंसां , मुसलमां किस तरह का है 
अभी तो छोड़दे ग़ीबत , अभी रमज़ान के दिन हैं !
तू वाबस्ता गुनाहों से हमेशा ही रहा ; अब तो
निभा कुछ क़ाइदा - सुन्नत , अभी रमज़ान के दिन हैं !
मुआफ़ी मिल ही जाएगी , गुनाहों से तू कर तौबा
खुला दरवाज़ा - ए - जन्नत , अभी रमज़ान के दिन हैं !
ख़ुदा की हर घड़ी ता'रीफ़ , शैतां की मज़म्मत कर 
हो' ताज़ादम दिखा क़ुव्वत , अभी रमज़ान के दिन हैं !
झुका ' राजेन्द्र सजदे में दुआ अल्लाह से करता 
मिले सबको सुकूं - राहत ,  अभी रमज़ान के दिन हैं !

- राजेन्द्र स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar


यहां सुनें  अभी रमज़ान के दिन हैं !

- राजेन्द्र स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar



शब्दार्थ
निस्बत=संबंध/लगाव/सगाई , तरावीह=रमज़ान माह में रात को पढ़ी जाने वाली ख़ास नमाज़ ,
हम्द=ईश्वरीय स्तुति , सना=पै.मोहम्मद सा.की ता'रीफ़ , निहां=छुपी/गुप्त , 
शफ़क़त=बड़ों की ओर से छोटों पर दया/मेहरबानी ,मज़ूरी=मज़्दूरी/मेहनताना , 
मग़फ़िरत=मोक्ष , मसर्रत=आत्मिक प्रसन्नता , उजरत=पारिश्रमिक , मेयार=स्तर , 
ग़ीबत=चुगली/परनिंदा ,वाबस्ता=संबद्ध/लिप्त/जुड़ा हुआ , क़ाइदा-सुन्नत=इस्लामी नियम ,  
दरवाज़ा-ए-जन्नत=स्वर्ग-द्वार , मज़म्मत=तिरस्कार/निंदा , क़ुव्वत=सामर्थ्य 



ईश्वर - अल्लाह एक हैं !
चाहे अल्लाहू कहो , चाहे जय श्री राम !
प्यार फैलना चाहिए , जब लें रब का नाम !!
अपने मज़हब  - धर्म पर , बेशक चल इंसान !
औरों के विश्वास का तू करना सम्मान  !!
कहने को जग में भरे , मज़हब ला'तादाद !
धर्म ; सिर्फ़ इंसानियत  है , यह रखना याद !!
मज़हब तो देता नहीं , नफ़रत का पैग़ाम !
शैतां आदम - भेष में करता है यह काम !!
इंसां के दिल में करे , ईश्वर - ख़ुदा निवास !
बंदे ! तू भी एक दिन , कर इसका एहसास !!
रब के घर होता नहीं , इंसानों में भेद !
नादां ! क्यूं रहते यहां , फ़िरक़ों में हो' क़ैद ?!
का'बा - काशी - क़ैद से , रब रहता आज़ाद !
 रब से मिल ले , कर उसे सच्चे दिल से याद !!
मक्का - मथुरा कब जुदा ? समझ - समझ का फेर !
ईश्वर - अल्लाह एक हैं , फिर काहे का बैर ?!
सुन हिंदू ! सुन मुसलमां ! प्यार चलेगा साथ !
रब की ख़ातिर … छोड़िए , बैर अहं छल घात !!
भाईचारा दोस्ती , इंसानी जज़बात !
इनके दम पर दीजिए शैतानों को मात !!
अलग अलग हैं रास्ते , मगर ठिकाना एक !
चार दिनों की ज़िंदगी , जीना हो'कर नेक !!

- राजेन्द्र स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar
और यहां सुनें  ईश्वर - अल्लाह एक हैं !




- राजेन्द्र स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar

और इस बीच मुझे अपने आशीर्वाद और प्यार से नवाज़ने के लिए
* आप सब का बहुत बहुत बहुत *
आभार ! शुक्रिया ! धन्यवाद !
* आपकी प्रतिक्रियाएं लगातार मिलती रहनी चाहिए *
* मेरी ऊर्जा और प्रेरणा के लिए *
*** शीघ्र ही मिलेंगे ***



20/8/10

तृप्त कामनाएं हैं ! चौमासै नैं रंग है !


वर्षा ॠतु अभी रहेगी , सावन अवश्य बीतने को है 
प्रस्तुत हैं 
वर्षा ॠतु से संबंधित दो रचनाएं 




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पहले प्रस्तुत है मेरी एक ग़ज़ल
तृप्त कामनाएं हैं

न वेदना है विरह की न यंत्रणाएं हैं
तुम्हें निहार लिया  , तृप्त कामनाएं हैं
करूंगा प्राण निछावर तुम्हारी प्रीत में मैं
बताओ , प्रीत की जो और अर्हताएं हैं
हृदय में आग नहीं , यज्ञ प्रीत का है कोई 
नहीं ये शे‘र मेरे ... मंत्र हैं , ऋचाएं  हैं
मुखर है मौन , न संकेत मिल रहा कोई
न लक्षणा है , न अभिधा , न व्यंजनाएं हैं
गरज रहे हैं ये घन , मस्त ज्यों गयंद कोई
सुलग रहीं हर रोंएं में वासनाएं हैं
न जा रे मेघ छली ! आज तू बिना बरसे
खड़ी युगों की लिये‘ प्यास द्रुम - लताएं हैं 
करेंगे तृप्त या घन श्याम लौट जाएंगे 
व्यथित विकल असमंजस में गोपिकाएं हैं
हवा में इत्र की ये गंध घोलदी किसने
महक लुटाने लगी अब दिशा - दिशाएं हैं
गगन - धरा हैं प्रणय - मग्न ; विघ्न हो न कहीं
लगादीं पहरे में चपलाएं - क्षणप्रभाएं हैं
धरा पॅ चंद्रमुखी यौवनाएं झूम रहीं 
गगन पॅ झूम रहीं सांवली घटाएं हैं
छमाक छम छम राजेन्द्र झम झमा झम झम
निरत - मगन - सी ये बूंदनियां नचनियाएं हैं
- राजेन्द्र स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar
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इसी ग़ज़ल को मेरे स्वर में यहां सुनिए  

मेरी बनाई धुन में नहीं ,जनाब वसीम बरेलवी की तरन्नुम में

- राजेन्द्र स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar
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मित्रों !  
यह ग़ज़ल सुबीर संवाद सेवा द्वारा आयोजित 
तरही मुशायरे " फ़लक पॅ झूम रही सांवली घटाएं हैं " 
के लिए तैयार की थी ।
यहां ग़ज़ल मूल स्वरूप में ही है, 
जबकि सुबीर पंकजजी ने अपनी समझ से ज़रा - सा संपादन किया है ।
वहां भी इस रचना को अन्य शोअरा की ग़ज़लियात के साथ  देखा जा सकता है ।

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 अब राजस्थानी में वर्षा ॠतु संबंधी मेरे चार कवित्त प्रस्तुत हैं

चौमासै नैं रंग है !

लागी बिरखा री झड़ , तड़ड़ तड़ड़ तड़ ,
 बींज री कड़ड़ कड़ड़ कड़ काळजो कंपावै है ! 
बादळिया भूरा - भूरा , बावळा हुया है पूरा , 
आंगणां सूं ले' कंगूरां … उधम मचावै है !
दाता री हुई है मै'र , आणंद री बैवै लैर ,
मुळकै सै गांव - श्हैर ; उछब मनावै है !
धण सूं न आगो हुवै , कोई न अभागो हुवै , 
कंत - प्री रो सागो हुवै , मेह झूम गावै है !

झूमै नाचै छोरा छोर्ऽयां , सैन्यां सूं रींझावै गोर्ऽयां ,
करै मनड़ां री चोर्ऽयां , रुत मनभावणी !
देश में नीं रैयो काळ , भर्ऽया बावड़्यां र ताळ ,
हींडा मंड्या डाळ - डाळ ; पून हरखावणी !
हिवड़ां हरख - हेत , सौरम रम्योड़ी रेत ,
हर्ऽया जड़ाजंत खेत , प्रकृति रींझावणी !
मुट्ठी - मुट्ठी सोनो मण , रमै राम कण - कण,
मोवै सूर री किरण , चांदणी सुहावणी !

मेळां रा निराळा ठाठ , रमझम बजारां हाट ,
मीठी छोटी छांट ... जाणै मोगरै री माळा है !
भोम आ लागै सुरग , मस्ती जागै रग - रग ,
तुरंग - कुरंग - खग  झूमै मतवाळा है !
डेडरिया टरर टर , बायरियो हहर हर ,
रूंख चूवै झर - झर , छाक्या नद - नाळा है !
मोरिया टहूकै, मीठी कोयल्यां कुहूकै ; 
इस्यै मौसम में चूकै जका … हीणै भाग वाळा है !

भोळो मल्हारां गावै , रास कान्हूड़ो रचावै ,
रति कम नैं रींझावै , चौमासै नैं रंग है !
रंगोळी मंडावै आभो , धरा पैरै नुंवो गाभो ,
 करै दामणी दड़ाभो , मेघ कूटै चंग है !
धीर तोड़ै सींव , जीव - जीव करै पीव , 
रैवै रुत आ सदीव तद बिजोग्यां पासंग है !
आड़ंग रै अंग - अंग , उमंग - तरंग ,
रैवै निसंग राजिंद ऐड़ी किण री आसंग है !

- राजेन्द्र स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar
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 यहां एक बार अवश्य सुन कर देखें इस राजस्थानी रचना को 


- राजेन्द्र स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar
सच कहें , आपको मेरी बनाई यह धुन कैसी लगी ?
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राजस्थानी रचना का भावानुवाद  
पढ़ कर आप अवश्य ही रचना की आत्मा तक पहुंच पाएंगे 

चौमासै नैं रंग है ! 
नतमस्तक और आभारी हैं वर्षा ॠतु के प्रति  !

तड़तड़ाहट की ध्वनि के साथ बरखा की झड़ी लग गई है ।
आकाशीय बिजली की कड़कड़ाहट से कलेजा कंपायमान हो रहा है ।
 धूम्रवर्णी बादल पूर्णतः पगला गए हैं , 
( तभी तो )  
आंगन - आंगन से ले' कर कंगूरों - कंगूरों तक उपद्रव मचाते ' फिर रहे हैं ।
दयालु परमात्मा की अनुकंपा से हर्षोल्लास की लहर बह निकली है ।
( इसलिए ) 
सारे गांव - शहर  हंसते - मुस्कुराते उत्सव मना रहे हैं ।
ऐसे में कोई अपनी भार्या से दूर न हो । कोई भी अभाग्यवान न रहे ।
हर प्रियतम - प्रिया का संगम - समागम हो । मेघ झूम - झूम कर यही गान कर रहे हैं ।

वर्षा आगमन पर बालक - बालिकाएं झूम रहे हैं , नाच रहे हैं ।
नवयौवनाएं इशारों से विमोहित कर रही हैं , हृदय हरण कर रही हैं ।
 सच , यह ॠतु बहुत मनभावनी है ।
अब देश में अकाल नहीं रहा । सारी बावड़ियां और तालाब भर गए ।
 डाली - डाली पर झूले पड़ गए । अब हवा भी प्रसन्नता प्रदायक है ।
 हृदय - हृदय हर्ष और स्नेह से परिपूर्ण है । रेत में भी सुगंधि समा गई है । 
खेत - खेत हरियल फसलों से लकदक हैं । प्रकृति विमुग्ध कर रही है । 
धन धान्य की ऐसी प्रचुरता हो गई जैसे 
हर मुट्ठी में मण भर ( चालीस किलोग्राम ) स्वर्ण आ गया हो । 
कण - कण में ईश्वर का साक्षात् हो रहा है । 
 सूर्य - रश्मियां सम्मोहित कर रही हैं । 
चांदनी सुहानी प्रतीत होने लगी है ।

वर्षा ॠतु में मेलों के अपने निराले ठाठ बाट होते हैं । 
हाट - बाज़ारों में चहल-पहल हो जाती है ।
ऐसे में घर से बाहर , मेले-बाज़ार में नन्ही बूंदों की फुहार से सामना होने पर लगता है , 
जैसे मोगरे के नन्हे - सुगंधित फूलों की माला से स्वागत हो रहा है ।
धरती स्वर्ग लगने लगती है । 
अंग- अंग , नस - नस में मस्ती जाग्रत हो जाती है । 
मनुष्य ही क्या , सब छोटे - बड़े पशु - पक्षी … तुरंग , कुरंग , खग मतवाले हो'कर झूमने लगते हैं ।  
दादुर ( मेंढक ) टर्र टर्र करने लगते हैं । हवा के झोंके हहराने लगते हैं । 
फल - फूल से लकदक  वृक्षों से  सम्पदा चू'ने - झरने  लगती है । 
सब नदी - नाले छक जाते हैं ।  मयूर वृंद टहूकने लगते हैं । कोयल समूह मधुर स्वरों में कुहुकने लगते हैं । 
ऐसे मनोहारी मौसम में भी कोई इन सुखों से वंचित रहते हैं तो वे बहुत भाग्यविहीन हैं ।

वर्षा ॠतु में साक्षात् शिव भी मल्हारें गाते रहते हैं । 
रसज्ञ कृष्ण रास रचाते हैं ।  रति स्वयं कामदेव को रिंझाती है । 
ऐसे चौमासे को नमन है !  आभार है !  
धन्य है यह ॠतु , जब अंबर अल्पना और रंगोली सजाता है । 
वसुंधरा नवीन वस्त्र - परिधान पहनती है ।
दामिनि दमक कर गर्जना करती है । मेघ चंग पर  प्रहार करके जश्न मनाते हैं । 
ऐसे में धैर्य सीमा तोड़ने लगता है । 
प्राणिमात्र प्रिय - प्यास में प्रेमिल - प्रमुदित पाए जाते हैं । 
यही ॠतु सदैव सर्वदा रहे , 
तो वियोगीजन को वियोग के बराबर मात्रा में संयोग का संतुलन बनाने का  सुअवसर मिले ।  
वर्षा ॠतु , यहां तक कि उसके आगमन के संकेत मात्र के अंग - प्रत्यंग में भी उमंग - तरंग  विद्यमान है । 
कवि राजेन्द्र स्वर्णकार कहता है कि ऐसे में कोई निस्पृह - निस्संग रह ले , किसकी ऐसी सामर्थ्य है ?
- राजेन्द्र स्वर्णकार 

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मेरे प्रति प्रदर्शित 
आपके स्नेह सहयोग और विश्वास के लिए 
हृदय से आभारी हूं ।
 मेरी ब्लॉग मित्र मंडली में सम्मिलित हुए 
नये मित्रों का  हार्दिक स्वागत है !


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बरसात में स्वास्थ्य संभाले रखें !
शरीर के साथ मन - मस्तिष्क  का भी स्वस्थ होना अत्यावश्यक है !

जुदाई ज़रूरी है 
 अगले मिलन की तैयारी में 


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