आज एक ग़ज़ल प्रस्तुत है
हाथ मारें , और… हवा के
नश्तरों को नोचलें
जो नज़र में चुभ
रहे , उन मंज़रों को नोचलें
शौक से जाएं
कहीं , पर… दर-दरीचे तोल कर
झूलते हाथों के
पागल-पत्थरों को नोचलें
मुद्दतों से
दूरियां गढ़ने में जो मशगूल हैं
खोखले ऐसे
रिवाजों-अधमरों को नोचलें
छोड़ कर
इंसानियत शैतां कभी बन जाइए
बरगलाते हैं जो ; ऐसे रहबरों को नोचलें
जो ; ग़ज़ल की सल्तनत को मिल्कियत ख़ुद की कहें
उन तबीअत-नाज़ीआना शाइरों को नोचलें
जो कहा
राजेन्द्र ने अपनी समझ से ठीक था
वरना उसके
फ़ल्सफ़े को , म श् व रों को नोचलें
-राजेन्द्र
स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
मिलते हैं दीवाली से पहले पहले
आप सबके स्नेह सहयोग सद्भावनाओं के लिए आभार
दीवाली की अग्रिम शुभकामनाएं !