मानलें ,
प्रस्तुत हिंदी रचना का जोगी गौतम बुद्ध है या भर्तृहरि है !
प्रस्तुत हिंदी रचना का जोगी गौतम बुद्ध है या भर्तृहरि है !
…और , रचना में शुरू से आख़िर तक स्वयं का परिचय दिए बिना ,
विरह वेदना से पीड़ित जो प्रेम पुजारिन पाठकों- दर्शकों से रूबरू है ,
वह यशोधरा है अथवा पिंगला है !
विरह वेदना से पीड़ित जो प्रेम पुजारिन पाठकों- दर्शकों से रूबरू है ,
वह यशोधरा है अथवा पिंगला है !
कल्पना कीजिए…
किसी अर्द्धरात्रि वेला में , यशोधरा को सोता हुआ छोड़ कर ,
किसी अर्द्धरात्रि वेला में , यशोधरा को सोता हुआ छोड़ कर ,
गौतम वैराग्य की चरम उत्कंठा-अनुभूति में मोह - माया के बंधन
और सारे रिश्ते - नाते त्याग कर संन्यास - पथ पर अग्रसर हो गए हों… !
या फिर…
राजा भर्तृहरि अपनी जीवन संगिनी रानी पिंगला सहित समूचा राज - पाट , ऐश्वर्य - वैभव ठुकरा कर
अमरत्व की चाह में जोग ले ले , और… किसी दिवस अनायास विरहिणी भार्या से भेंट हो जाने पर ,
उसकी चिर प्रेम जनित विरह वेदना के तीक्ष्ण बाणों से बिंध जाने को विवश हो जाए ,
उसके प्रश्नों के समक्ष निरुत्तर हो जाए , उसके कटाक्षों से आहत हो जाए ………
क्या ऐसी कल्पना ,
प्रस्तुत रचना के माध्यम से किसी अलग काल , परिस्थिति , रोमांच और अनुभूति से
दो - चार करवा पाने में सफल हुई है ?
रचना पढ़ते हुए सुनें… चाहे सुनते हुए पढ़ें…
या फिर…
राजा भर्तृहरि अपनी जीवन संगिनी रानी पिंगला सहित समूचा राज - पाट , ऐश्वर्य - वैभव ठुकरा कर
अमरत्व की चाह में जोग ले ले , और… किसी दिवस अनायास विरहिणी भार्या से भेंट हो जाने पर ,
उसकी चिर प्रेम जनित विरह वेदना के तीक्ष्ण बाणों से बिंध जाने को विवश हो जाए ,
उसके प्रश्नों के समक्ष निरुत्तर हो जाए , उसके कटाक्षों से आहत हो जाए ………
क्या ऐसी कल्पना ,
प्रस्तुत रचना के माध्यम से किसी अलग काल , परिस्थिति , रोमांच और अनुभूति से
दो - चार करवा पाने में सफल हुई है ?
रचना पढ़ते हुए सुनें… चाहे सुनते हुए पढ़ें…
मन है बहुत उदास रे जोगी !
मन है बहुत उदास रे जोगी !
आज नहीं प्रिय पास रे जोगी !
पूछ न ! प्रीत का दीप जला कर
कौन चला बनवास रे जोगी !
जी घुटता है ; बाहर चलती
लाख पवन उनचास रे जोगी !
अब सम्हाले' संभल न पाती
श्वास सहित उच्छ्वास रे जोगी !
पी' मन में रम - रच गया ; जैसे
पुष्प में रंग - सुवास रे जोगी !
प्रेम - अगन में जलने का तो
हमको था अभ्यास रे जोगी !
किंतु विरह - धूनी तपने का
है पहला आभास रे जोगी !
धार लिया तूने तो डर कर
इस जग से संन्यास रे जोगी !
कौन पराया - अपना है रे !
क्या घर और प्रवास रे जोगी !
चोट लगी तो तड़प उठेगा
मत कर तू उपहास रे जोगी !
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है !
और सिद्धि संत्रास रे जोगी !
छोड़ हमें राजेन्द्र अकेला
है इतनी अरदास रे जोगी !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
©copyright by : Rajendra Swarnkar

यही रचना मेरी ही बनाई धुन पर , मेरे ही स्वर में सुनें यहां।
अपनी पसंद - नापसंद से अवश्य ही अवगत करवाएं , कृपया !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
*********************************************************************************
मक़्बूल शायर मोहतरम राहत इंदौरी साहब की ग़ज़ल के बहुचर्चित शे'र
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
की तर्ज़ पर
"आज की ग़ज़ल" ने
मिसरा-ए-तरह "कौन चला बनवास रे जोगी" पर तरही मुशायरा आयोजित किया हुआ है ,
इसकी चौथी क़िस्त में मेरी रचना भी सम्मिलित है ।
"आज की ग़ज़ल" ने
मिसरा-ए-तरह "कौन चला बनवास रे जोगी" पर तरही मुशायरा आयोजित किया हुआ है ,
इसकी चौथी क़िस्त में मेरी रचना भी सम्मिलित है ।
झुर- झुर' रो - रो' नैण गमावूं !
झुर- झुर' रो - रो' नैण गमावूं !
कींकर थां' नैं म्हैं बिसरावूं ?
नेह लगा' थे मुंह मोड़्या ; नित
लिख-लिख' पाती म्हैं भिजवावूं !
प्रीत करी बिन स्वारथ म्हैं तो
था' नैं सिंवरूं ,धरम निभावूं !
सूकै खेती बिन बिरखा ज्यूं
सूकै खेती बिन बिरखा ज्यूं
थां' रै बिन दिन - दिन कुम्हळावूं !
नीं आवो थे , नीं म्हैं भूलूं
नीं आवो थे , नीं म्हैं भूलूं
प्रीत करी क्यूं म्हैं पछतावूं !
पुषब चढावूं ओळ्यूंड़ी रा
आंसूड़ां री जोत जगावूं !
देव बसै घट मांहीं म्हारो
मन - मिंदरियै धोक लगावूं !
बंध करूं म्हैं आंखड़ल्यां ; अर
राजिंद पिव रा दरशण पावूं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
*********************************************************************************
उपरोक्त राजस्थानी ग़ज़ल में प्रयुक्त शब्दों का भावार्थ
केवल और केवल आपके लिए
झुर- झुर' = विरह वेदना से तड़प-तड़प कर / कींकर = कैसे / बिसरावूं = विस्मृत करूं /
था' नैं सिंवरूं = आपको ही स्मरण करती हूं / कुम्हळावूं = मुरझाती हूं /
पुषब चढावूं = पुष्प अर्पित करती हूं / ओळ्यूंड़ी रा = स्मृतियों के / घट मांहीं = हृदय में /
म्हारो = मेरा / पिव रा दरशण पावूं = प्रियतम के दर्शन पाती हूं
…और इस बीच
कितनी विराट और प्रबुद्ध हस्तियों का स्नेह और आशीर्वाद शस्वरं के माध्यम से मुझे मिला !
कितने आत्मीयजनों के साथ संबंध प्रगाढ़ हुए !
कितनी विराट और प्रबुद्ध हस्तियों का स्नेह और आशीर्वाद शस्वरं के माध्यम से मुझे मिला !
कितने आत्मीयजनों के साथ संबंध प्रगाढ़ हुए !
आप सबके सहयोग , सद्भाव , अपनत्व , सहृदयता और मित्रता से धन्य हो गया हूं मैं !
धन्यवाद या आभार कह कर इन संबंधों की गरिमा का हल्का मूल्यांकन नहीं करना चाहता !
धन्यवाद या आभार कह कर इन संबंधों की गरिमा का हल्का मूल्यांकन नहीं करना चाहता !
जलता रहे दीप … देता रहे प्रकाश … मिटना ही है हर कल्मष को …
