पेश है एक मुसलसल ग़ज़ल
चाहें तो ग़ज़लनुमा नज़्म कहलें
यहां दिल्ली महज़ दिल्ली नहीं ।
कभी यह हिंदुस्तान की राजधानी है , कभी एक महानगर ।
कभी सत्ता तो कभी सत्ताधारी राजनीतिक दल ।
कभी हिंदुस्तान की बेबस अवाम ।
1947 के बाद का खंडित विभाजित भारत भी ।
मुगलकालीन हिंदुस्तान भी ।
महाभारतकालीन अखिल आर्यावर्त भी ।
अभी और क्या क्या दिखाएगी दिल्ली !
तू गुल और क्या क्या खिलाएगी दिल्ली
?
सुना था व्यवस्था बनाएगी दिल्ली !
अंधेरों में दीपक जलाएगी दिल्ली !
है मशगूल खाने में आई है जब से
न छेड़ो , बुरा मान जाएगी दिल्ली !
इसे सिर्फ़ झूठी ख़ुशामद सुहाती
सुनेगी जो सच , तिलमिलाएगी दिल्ली !
ये कब तक हमें बरगलाती रहेगी
किए थे जो वादे निभाएगी दिल्ली ?
हमारी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा था इसका
निभा भी कभी फ़र्ज़ पाएगी दिल्ली ?
दरिंदों पे क़ाबू कभी कर न पाई
भलों को हमेशा डराएगी दिल्ली !
बहन-बेटियों ! घर में छुप कर ही रहना
मरी... जीभ तो लपलपाएगी दिल्ली !
लड़ा कर मुसलमां को हिंदू से ; आख़िर
कहां तक सियासत चलाएगी दिल्ली !?
हुए हादसे , शोर भी उनका होगा
बयानों में सबको उड़ाएगी दिल्ली !
थी गफ़लत में ये , नींद में ये रहेगी
जो सोई है ख़ुद , क्या जगाएगी दिल्ली ?
जिये या मरे कोई , क्या फ़र्क़ इसको
बहुत जल्द सब कुछ भुलाएगी दिल्ली !
सफ़ाई में कुछ तुझको कहना है निर्लज
!
बता कितने दिन मुंह छुपाएगी दिल्ली
?
बता मुल्क का और कितने दिनों तक
लहू पी’के तू मुस्कुराएगी दिल्ली ?
ये बहरी तो थी , हो गई अब ये गूंगी
सुनेगी , न कुछ भी बताएगी दिल्ली !
तवारीख़ को याद कर’के , अकेले
नयन रात-दिन डबडबाएगी दिल्ली !
धरा पांडवों की , ज़मीं ये ज़फ़र की
किये’ दिल कड़ा कसमसाएगी दिल्ली !
कभी पा सकी ख़ुद को वापस अगर ये
तो राजेन्द्र फिर जगमगाएगी दिल्ली !
-राजेन्द्र स्वर्णकार