ब्लॉग मित्र मंडली

30/11/11

मैं सच कहता हूं , तुमको मेरी याद बहुत तड़पाएगी

मैं सच कहता हूं , तुमको मेरी याद बहुत तड़पाएगी
जब धुआं-धुआं दिन हो जाएगा... और , शाम धुंधलाएगी
जब आसमान की चूनर पर तारों की जरी कढ़ जाएगी
पांखी दिन भर के हारे-थके
नीड़ों में जा' सुस्ताएंगे
फिर... देखना तेरे मन की बेचैनी भी बढ़-बढ़ जाएगी
मैं सच कहता हूं , तुमको मेरी याद बहुत तड़पाएगी

जब दूर किसी साहिल पर कोई कश्ती रुक-थम जाएगी
जब दिन भर शोर मचाती राहों पर चुप्पी छा जाएगी
छुप-छुप कर बैठे दो साये
जब तुम्हें नज़र  जाएंगे
तब... कोई बात तुम्हारे दिल में मीठी टीस जगाएगी
मैं सच कहता हूं , तुमको मेरी याद बहुत तड़पाएगी

तनहाई की घड़ियां हर पल-पल तुम्हें रुला कर जाएंगी
हर सांस-सांस के साथ सदाएं मेरी ; तुम्हें बुलाएंगी
तेरी आंखों में बात-बात पर
मोती भर-भर आएंगे
तुम्हें आइनों में भी सूरत नज़र मेरी  ही आएगी
मैं सच कहता हूं , तुमको मेरी याद बहुत तड़पाएगी
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
यहां सुनें मेरा यह गीत मेरी आवाज़ में
©copyright by : Rajendra Swarnkar
बहुत पहले लिखा गया यह गीत आपको कैसा लगा ?
गुलाबी सर्दियों की शुरुआत लगभग हो चुकी है 
ख़याल रखिएगा !
फिर मिलेंगे
मंगलकामनाओं सहित


21/11/11

दरिया से न समंदर छीन

                                                                    
आज प्रस्तुत है बिना भूमिका के
एक ग़ज़ल



दरिया से न समंदर छीन
दरिया से न समंदर छीन
मुझसे मत मेरा घर छीन
क्यों उड़ने की दावत दी
ले तो लिये पहले पर छीन
मंज़िल मैं ख़ुद पा लूंगा
राह न मेरी रहबर छीन
मिल लूंगा उससे , लेकिन
पहले उससे पत्त्थर छीन
देख ! हक़ीक़त बोलेगी
हाथों से मत संगजर छीन
लूट मुझे ; मुझसे मेरा
जैसा है न सुख़नवर छीन
बोल लुटेरे ! ताक़त है ?
मुझसे मेरा मुक़द्दर छीन
मालिक ! नज़र नज़र से अब
ख़ौफ़ भरे सब मंज़र छीन
राजेन्द्र हौवा तो नहीं
लोगों के मन से डर छीन
- राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar


आप सबके लिए दुआएं हैं 
सदा ख़ुश-ओ-आबाद रहें 
आमीन


11/11/11

सच मानें , सबसे बड़ा होता है इंसान

चाहे अल्लाहू कहो , चाहे जय श्री राम !
प्यार फैलना चाहिए , जब लें रब का नाम !!
रब के घर होता नहीं , इंसानों में भेद !
नादां ! क्यूं रहते यहां फ़िरक़ों में हो क़ैद ?!
मक्का-मथुरा कब जुदा , समझ-समझ का फेर !
ईश्वर-अल्लाह् एक हैं , फिर काहे का बैर ?!
सुन हिंदू ! सुन मुसलमां ! प्यार चलेगा साथ !
रब की ख़ातिर … छोड़िए , बैर अहं छल घात !!
राम नहीं , ईसा नहीं , नहीं बड़ा रहमान !
सच मानें , सबसे बड़ा होता है इंसान !!
मस्जिद-मंदिर तो हुए , पत्थर से ता'मीर !
इंसां का दिल : राम की , अल्लाह् की जागीर !!
दोस्तों , ये इल्तिजा है प्यार कीजिए
बैर में न ज़्यादा ऐतबार कीजिए
दिल किसी का भी दुखाना जुर्म है बड़ा
मत गुनाह ऐसे बार-बार कीजिए
क़ौल-अहद नफ़रतों से तोड़ दो सभी
अब मुहब्बतों से कुछ क़रार कीजिए
ग़लतियां मु'आफ़ करने में ही लुत्फ़ है
भूल हो किसी की ; दरकिनार कीजिए
 एक ख़ून है हमारा एक है ख़ुदा
इस यक़ीन को न तार-तार कीजिए
आप ही सजाइए , है आपकी ज़मीं
बाग़ कीजिए न रेगज़ार कीजिए
आओ सातों जन्नतें उतार दें यहां
रोज़-रोज़ नेकियां हज़ार कीजिए
कल जहां से जाएंगे राजेन्द्र हम सभी
ज़िंदगी को आज यादगार कीजिए
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar

यहां सुनिए


©copyright by : Rajendra Swarnkar

दोहे और ग़ज़ल की एक साथ सस्वर प्रस्तुति आपने पहले शायद नहीं सुनी होगी । पसंद आने पर हमेशा की तरह आपसे उत्साहवर्द्धन और आशीर्वाद की अपेक्षा रहेगी । 
अब आज्ञा दें  

* * *
और हां, सूत्र वाक्य याद रखें



प्यार कीजिए !


1/11/11

पहाड़ों को पसीना आ गया

ग़ज़ल
जामे-मय आंखों से पीना आ गया
मर गए उन पर तो जीना आ गया
हाथ का पत्थर किनारे रख दिया
तब से जीने का क़रीना आ गया
गर्म मौसम की हवा जब झेल ली
तब से सावन का महीना आ गया
पांव मां के छू लिए हो सरनिगूं
हाथ में गोया दफ़ीना आ गया
नाम उसका जब तलातुम में लिया
मेरी जानिब हर सफ़ीना आ गया
मेरे इंसां की बलंदी देख कर
कुछ पहाड़ों को पसीना आ गया
ज़हब-से  अश्आर हैं राजेन्द्र के
लफ़्ज़-लफ़्ज़ में इक नगीना आ गया
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar


शब्दार्थ
सरनिगूं : नतमस्तक ,  दफ़ीना : गड़ा हुआ ख़ज़ाना , 
तलातुम : भीषण बाढ़ , सफ़ीना :  नाव , ज़हब : स्वर्ण

वर्ष 2002-2003 के किसी दिन  की बात है ।
रात 9:30 बजे के आस-पास शहर के एक उर्दूदां शायर महोदय  - जिनसे मेरा पूर्व परिचय नहीं था ; ने फोन पर इत्तिला दे’कर अगले सवेरे 9:00 बजे स्थानीय रामपुरिया महाविद्यालय पहुंचने तथा वहां ग़ज़ल के बरजस्ताग़ोई के एक मुकाबले में शिरक़त करने के लिए आमंत्रण दिया । 
बरजस्ताग़ोई = हाथोंहाथ तुरंत ग़ज़ल बनाना ) 
सवेरे हम जा पहुंचे … स्थानीय ग़ज़लकारों के अलावा बाहर से कुछ शोअरा भी पधारे थे । निर्णायक भी बाहर के ही थे । 
वहां हाथों हाथ मिसरा दिया गया,  जो था “पहाड़ों को पसीना आ रहा है”
present continues tense का यह मिसरा ही अटपटा लगने के कारण मैंने 
इसे past indefinet tense में बदल कर “पहाड़ों को पसीना आ गयाके structure पर उस निर्धारित एक घंटे के समय में यह ग़ज़ल लिख कर तरन्नुम के साथ पेश की थी । निर्धारित मिसरे में ग़ज़ल न कहने के लिए मैंने स्वयं को मुकाबले से पहले ही बाहर घोषित कर दिया था ।
तो …इस ग़ज़ल का जन्म ऐसे हुआ ।
                  

अभी दो दिन मेरा ब्लॉग गूगल की किसी समस्या के कारण REMOVED बता रहा था …  मैं बता नहीं सकता कि कितना दुखी था मैं इस कारण । आप में से कइयों ने धैर्य बंधाया और आपकी दुआओं से मेरे दोनों ब्लॉग लौट आए । 
मैं आप सबके स्नेह-अपनत्व को बहुत मान देता हूं ।
इस बीच जिन नये मित्रों ने शस्वरं को अपने समर्थन से धन्य किया है , 
इतनी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएं मेरी रचनाओं के लिए दी हैं , 
सबके प्रति हृदय से आभारी हूं ।