ब्लॉग मित्र मंडली

30/1/11

है क़लम अपना तआरुफ़



आगे बहुत कुछ पोस्ट करने को है , यह ग़ज़ल रह न जाए
इसलिए
मां सरस्वती की कृपा से
दो- तीन घंटे में ही बनी यह ग़ज़ल शस्वरं के सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत है  
***

अभी 22  जनवरी 2011 को भाई वीनस केसरी जी की मेल मिली ,
जिसमें "OBO लाइव तरही मुशायरा" अंक-७ में भाग लेने का आह्वान था ।
छंद और ग़ज़ल का साधक विद्यार्थी होने के नाते मैं तुरंत OBO पर पहुंचा ,
पता चला 23 जनवरी ही अंतिम तिथि है तरही मुशायरे में भाग लेने की ।
बहरे रमल मुसमन महजूफ  पर आधारित इस मुशायरे का मिसरा-ए-तरह था
"देश के कण कण से और(औ) जन जन से मुझको प्यार है" 
घोषित अंतिम तिथि के दिन लिखी और प्रेषित यह ग़ज़ल
 "OBO लाइव तरही मुशायरा अंक-७"में अंतिम दिन 23 जनवरी को प्रकाशित हुई
यहां आपकी परख कसौटी के लिए प्रस्तुत है यह ग़ज़ल

है क़लम अपना तआरुफ़ , कुंद है या धार है !


दोस्त है , माशूक़ है , तो कोई रिश्तेदार है !
जिस तरफ़ भी देखते हैं ; हर तरफ़ बाज़ार है !

है तिज़ारत किस तरह की क्या ये कारोबार है ?
नफ़रतें हैं मंडियों में , …और गायब प्यार है !

आज है गर जीत तो कल हार भी तैयार है !
ज़िंदगी है इक जुआ , इससे किसे इंकार है ?

एक का औज़ार है यह , एक का हथियार है !
है क़लम अपना तआरुफ़ , कुंद है या धार है !

देश की हालत का कहिए कौन ज़िम्मेदार है ?
देश की जनता है या फिर देश की सरकार है !

यूं तो कहने को गुलिस्तां में बहारें आ गईं ,
क्यों कलेजों में गुलों के दहकता अंगार है ?

मुस्कुराते हैं सियासतदां ; …ये बच्चे गा रहे ,
देश के कण कण से औ' जन जन से मुझको प्यार है !

रहबरों को छोड़िए पैग़म्बरों को छोड़िए ,
ख़ाक वो देगा दवा जो ख़ुद पड़ा बीमार है !

हम ज़माने में हुए मशहूर भी बदनाम भी ,
और कुछ होने की कहिए तो किसे दरकार है ?

था जहां कल , आज भी है , कल मिलेगा वो यहीं
दिल में है इंसानियत ; वो साथ ही ख़ुद्दार है !

आज है ज़र्रा , सितारा ख़ुद वो कल बन जाएगा
क़ैद जिसकी मुट्ठियों में वक़्त की रफ़्तार है !

मत यक़ीं राजेन्द्र तू कर , कौन है किसका यहां ?
कौन हमदम ? कौन हमग़म ? कौन यां ग़मख़्वार है ?

- राजेन्द्र स्वर्णकार
(c)copyright by : Rajendra Swarnkar
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शस्वरं के प्रत्येक समर्थक ( फॉलोअर ) एवम् टिप्पणीदाताओं
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फिर भी आप सबसे विनम्र निवेदन है
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…और मेल द्वारा ही भेजा करें
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कुछ हादसों के कारण
अनेक कमेंट्स का जवाब देने में चूक हो जाती है
कृपया, अन्यथा न लें
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अपना ख़याल रखिएगा


26/1/11

क़तरा-क़तरा ख़ून का तेरा वतन का है !


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****गणतंत्र दिवस  की  शुभकामनाएं !****

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प्रस्तुत है, नौजवानों को संबोधित एक नज़्म 

नौजवान

आबरू वतन की नौजवान ! तुमसे है …
ख़ुशबू-ए-चमन ऐ बाग़बान ! तुमसे है …
देश के लिए निकल के तू घरों से आ !
मस्जिदो-गुरुद्वारों, चर्चो-मंदिरों से आ !
गर्दे-मज़हब रुहो-जिस्म से ; आ झाड़ कर !
दुश्मने-वतन पे टूट पड़ दहाड़ कर !!

मोड़-मोड़ पर खड़े हैं लाख इम्तिहां !
देश को बहुत है आस तुमसे नौजवां !
ज़र्रा-ज़र्रा हिंद का निहारता तुम्हें …
मां का रोम-रोम ; सुन ! पुकारता तुम्हें …
नौजवान आ ! नूरे-जहान आ !
हिंद के मुस्तक़बिल ! रौशन-निशान !!

तू ही जिस्म और तू ही जान हिंद की !
नौजवां ! बलंद रखले शान हिंद की !
अज़्मतो-पाकीज़गी, बलंद हौसला ;
ख़ास है जहां में ये पहचान हिंद की !
नौजवां सम्हाले रखना शान हिंद की !!

नौजवां ! अज़ीम तेरी आन बान शान !
तेरे हाथ में सुकून, अम्न-ओ-अमान !
जीतले ज़मीन, जीतले तू आसमान !
जीतले दिलों को, जीतले तू दो जहान !
सुन ! वतनपरस्ती ऊंची मज़हबों से है !
इज़्ज़ते-वतन तुम्हारे वल्वलों से है !!

बर्फ़ के मानिंद शोले हो नहीं सकते !
शेरमर्द तो खिलौने हो नहीं सकते !
तीरगी टिकेगी कब मशाल के आगे ?
तेरे हौसले तेरे जलाल के आगे !!

मादरे-वतन के ज़ख़्म भरदे नौजवां !
दुश्मनों के सर क़लम तू करदे नौजवां !
क़तरा-क़तरा ख़ून का तेरा वतन का है !
है वतन भी तेरा !…और तू वतन का है !

लहरादे तिरंगा ऊंचे आसमान पे !
फहरादे तिरंगा ऊंचे आसमान पे !
जानो-ईमां नज़्र कर हिंदोस्तान पे !

नौजवान आ !
नौजवान आ !!
नौजवान आ !!!
- राजेन्द्र स्वर्णकार
(c)copyright by : Rajendra Swarnkar

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यहां इस नज़्म को मेरे स्वर में सुनिए 
  
(c)copyright by : Rajendra Swarnkar
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शस्वरं को इस बीच

अपने स्नेह-समर्थन से नवाज़ने वालों के प्रति हृदय से आभार !
जयहिंद

19/1/11

चली चवन्नी ठाठ से !


केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा 20 दिसंबर 2010 को जारी अधिसूचना के अनुसार 30 जून 2011 से 
25 पैसे और इससे कम मूल्य के सभी  सिक्कों को चलन से वापस ले लिया जाएगा।
तो क्या अब तक ठाठ से चलती आ रही चवन्नियों के माई-बाप करमफ़र्मा आक़ाओं की इतनी नहीं चलेगी कि वे पूर्ववत चवन्नियों को चला सकें ?!

आप सोच रहे होंगे कि बात क्या है … है ना ?
तो सुनिए, अभी महीना है जनवरी ,
और हर महीने की तरह इस महीने में भी आती है 26 तारीख ।
…और 26 जनवरी को
ग़ुलाम मानसिकता वाले आज़ाद भारत का होता है गणतंत्र दिवस !
और इस अवसर पर शहर शहर, नगर नगर में 
प्रशासन द्वारा बांटी जाती हैं कला, साहित्य आदि के नाम पर  रेवड़ियां !
बांटी क्या जाती हैं जी,
कुछ काइयां किस्म के अवसरवादी छद्म सृजक  उकसा देते हैं सरकार को, 
और ख़ुद निर्णायक पंच बन कर 
गुणीजनों की गर्दनें काटने की क़ीमत पर 
असली हक़दारों के पेट पर लात और पीठ में गंडासा मार कर
जातिवाद के आधार पर लॉबिंग करके
अपने टटपुंजिया चेलों चमाटों को इतराने के अवसर उपलब्ध करवाते हैं ।
सरेआम इंसानियत के ख़ून का यह भी एक मौका होता है, 
जब ज़ल्लादों की परमानेंट पीढ़ी टेम्परेरी रूप से 
इंसाफ़ को सूली पर लटकाने का सार्वजनिक प्रदर्शन करती है !
गांठ के पूरे और आंख के अंधे से कुछ पाना ज़्यादा मुश्किल भी नहीं होता …। 
और प्रशासन के ही पास आंखें होती तो
अन्य बहुत सारी बातों के साथ  
हमेशा ज़्यादातर ग़लत लोग ही पुरस्कार और मान-सम्मान के हक़दार नहीं बनते !

* तो जनवरी है जी सेलिब्रेशन का महीना *
सरकार के लिए ! अवसरवादी छलछंदी छद्म लोगों के लिए ! टटपुंजियों के लिए !

…तो सरस्वती की वरद संतान भी क्यों न सेलिब्रेट करे 26 जनवरी की पूर्व वेला… 
 ?  !  ?
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आप यक़ीन मानें
अभी रात ( 1:57 ) एक बज कर सत्तावन मिनट पर
यह आलेख लिखते समय
धरती माता ने तड़प कर करवट बदल कर 
( भूकम्प )
इस अन्यायपूर्ण शर्मनाक स्थिति की पीड़ा की पुष्टि में
अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है ।
* जय हो !*
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आइए, एक गीत का आनन्द लिया जाए

चली चवन्नी ठाठ से !

सुन कर चकित हुए कितने ; कुछ उछल गिर पड़े खाट से !
सौ का नोट नहीं चल पाया चली चवन्नी ठाठ से !!
फिर चली चवन्नी ठाठ से …

तोल किया छलियों ने फिर से खोटे तकड़ी बाट से !
नये नाम से ख़बर पुरानी, निकली अंध कपाट से !!
फिर चली चवन्नी ठाठ से …

लहराते घुंघराले संवरे केश रहे अनदेखे ही,
रींझे नव अवतार सूर के, बस… गंजी खल्वाट से !! 
फिर चली चवन्नी ठाठ से…

दुराग्रही बादाम के हलवे को बेदम बकवास कहे
स्वाद उन्हें मिलता है खट्टी राब से, बासी घाट से !!
फिर चली चवन्नी ठाठ से …

मखमल रेशम मलमल तो औक़ात समझ से बाहर हैं
मिले रगड़ते वे सिर अपने घास जूट से, टाट से !!
फिर चली चवन्नी ठाठ से …

ख़रे माल की क़ीमत क्या दे… माद्दा नहीं परखने का
पाट सके कब भाट पाठ कर फ़र्क़ साठ का आठ से ?!
फिर चली चवन्नी ठाठ से …

राजहंस राजेन्द्र दूर से काग गिद्ध लीला देखे
ईमां बिकता; आस किसे उस टुच्ची मंडी हाट से ?!
फिर चली चवन्नी ठाठ से …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
(c)copyright by : Rajendra Swarnkar

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आप मेरे समर्थक स्नेहीजन अब 200 से अधिक हैं ।
अभिभूत हूं मुझ पर आपके विश्वास को महसूस करके !
आभारी हूं मेरे प्रति आपके स्नेह के लिए !

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तो आज इतना ही
मिलते हैं 26 जनवरी के आस-पास  
Take Care

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11/1/11

ज़माना लुटेरा है आंसू ख़ज़ाना


ज़माना लुटेरा है आंसू ख़ज़ाना

हमें बात दिल की बता दीजिएगा
न ज़ख़्मों को ज़्यादा हवा दीजिएगा
अजी इस तरह मत सज़ा दीजिएगा
अगर दीजिए तो बजा दीजिएगा
यूं ग़म शौक़ से बारहा दीजिएगा
मगर रूठ कर मत सज़ा दीजिएगा
 कहा मानिएगा, कहा कीजिएगा
उदासी का आंचल हटा दीजिएगा
धुआं हद से ज़्यादा जो देने लगे; वो
चराग़ अपने हाथों बुझा दीजिएगा
ज़माना लुटेरा है आंसू ख़ज़ाना
जहां से ये दौलत छुपा दीजिएगा
- राजेन्द्र स्वर्णकार
(c)copyright by : Rajendra Swarnkar


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यहां सुनें मेरी धुन में मेरे शब्द मेरे स्वर में


(c)copyright by : Rajendra Swarnkar
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11111111111
अर्थात्
11 - 1 - 11   11 : 11 : 11
अर्थात्
वर्ष 11 के पहले महीने की 11वीं तारीख को
पूर्वाह्न के 11 बज कर कर 11 मिनट 11 सैकंड पर 
डाली गई इस पोस्ट के माध्यम से 
आपके लिए
11111111111 शुभकामनाएं !

और कल इस ब्लॉग की स्थापना के दस माह पूरे हुए ।
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आप सबके प्रति हार्दिक आभार !
स्नेह सहयोग सद्भाव बनाए रखिएगा

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