भुला देना उसे मेरे लिए आसां नहीं होगा
अगरचे वो कभी फिर से मेरा मेहमां नहीं होगा
-राजेन्द्र स्वर्णकार
***
जन्नतनशीं शाइर मरहूम निसार अहमद अनजान साहब
को
विनम्र श्रद्धांजलि
प्रस्तुत है निसार भाई की चार रचनाएं
आज उनको सलाम कर आए
ज़िंदगी को तमाम कर आए
चंद ख़ुशियां जो पास थीं अपने
आज वो उनके नाम कर आए
सुबह होते ही हम गए थे वहां
बातों-बातों में शाम कर आए
जाने क्या देखा उनकी आंखों में
जो गए , दिल को थाम कर आए
ख़ुश्क ज़ाहिद दिखाई देते थे
पैश उनको भी जाम कर आए
उनके क़दमों में गिर पड़े थे मगर
जब उठे हाथ थाम कर आए
अब न ‘अनजान’ रूठ पाएंगे
रूठना तो हराम कर आए
-निसार अहमद बैंस ‘अनजान’ बीकानेरी
यहां इस ग़ज़ल को मेरी धुन में मेरे स्वर में सुनें
२
रात गए तक जाग चुके हैं , अललसुबह कुछ आंख लगी है
जलती रही है साथ ही शम्मा , आंख लगी तो बुझने लगी है
दूर तलक हैं धूप के साये , बर्गो-समर का नाम नहीं है
रेत ही रेत है हद्दे-नज़र तक , जोर से कितनी प्यास लगी है
लौट रहे हैं नीड़ के पंछी , ढूंढ़ ही लेंगे अपना ठिकाना
जिनका कोई घर-द्वार नहीं है , सूने फलक पर आंख लगी है
भूलना चाहें भूल न पाएं , छोड़ना चाहें छोड़ न पाएं
जितना ही उनसे दूर हुए हैं , उनकी मुहब्बत और बढ़ी है
एक तेरे दीदार की धुन है , परवाह नहीं जो राह कठन है
तेज़ क़दम ‘अनजान’ डगर पर , जिस्म की ताक़त चुकने लगी है
-निसार अहमद बैंस ‘अनजान’ बीकानेरी
यहां इस रचना को मेरी धुन में मेरे स्वर में सुनें
३
देर तक आज ज़िक्रे-यार चले
तीर इस दिल के आर-पार चले
चार दिन उम्र के गुज़ार चले
शोर बरपा हुआ ‘निसार’ चले
उसका क्या दिल पे इख़्तियार चले
जिस पे शमशीरे-आबदार चले
पास जो कुछ था वक्फ़ कर डाला
है सफ़र लम्बा , किससे बार चले
जो उठे तेरी बज्म से सीधे
मिस्ले-मंसूर सू-ए-दार चले
तेरी रहमत को कब गवारा है
सर झुकाए गुनाहगार चले
उम्रे-रफ़्ता की याद आती है
सिर्फ़ धुन थी कि रोज़गार चले
मेरे मरने पे जश्न मत रोको
दुनिया, दुनिया है , कारोबार चले
अलविदा अहले-गुलसितां ! हम तो
सू-ए-सहरा-ओ-खारज़ार चले
दावरे-हश्र ने पुकारा जब
हम ही ‘अनजान’ ख़ुशगवार चले
-निसार अहमद बैंस ‘अनजान’ बीकानेरी
४
शहंशाही तख़य्युल है , मुकद्दर है फ़क़ीराना
कोई देखे तो किस अंदाज़ से जीता है दीवाना
लड़ाते आए हैं दैरो-हरम सदियों से इंसां को
मगर लड़तों को मिलवाता रहा है सिर्फ़ मयखाना
लगा है साये-सा पीछे , ये शैतां जानले आदम
न इसकी बातों में आना , पड़ेगा वरना पछताना
मज़ारों पर नहूसत का ज़रा तुम हाल तो देखो
कभी इन नाज़नीनों का भी था अंदाज़े-सुलताना
गया जो वक़्त हर्गिज़ लौट कर आता नहीं लेकिन
मैं फौरन दौड़े आऊंगा , कभी तुम दिल से बुलवाना
न आहट ही हुई कोई , न थी उम्मीद आने की
हमेशा याद आएगा तेरा चुपके से यूं आना
हमें ‘अनजान’ कितना नाज़ है ज़ख़्मों पे मत पूछो
गवारा कैसे करलें दोस्तों फिर इनका भर जाना
-निसार अहमद बैंस ‘अनजान’ बीकानेरी
निसार चले
28 जून 2011 को सुबह 10-11 बजे मोबाइल देखा तो एक sms आया हुआ था , जो भाई नदीम अहमद ‘नदीम’ द्वारा सवेरे 7: 26:55 am बजे भेजा गया था
। खोल कर पढ़ा तो सन्न रह गया …दुबारा पढ़ा …नीचे भाग कर गया । दैनिक राजस्थान पत्रिका अख़बार मेन गेट के पास
मोटरसाइकिल के सहारे अभी भी वैसे ही पड़ा था जैसे हॉकर द्वारा फेंक कर जाने के बाद प्रायः हमेशा होता है ।
… ख़बर तो नहीं छपी थी … लेकिन परिवार वालों
द्वारा अपने प्रियजनों के मरने की सूचना वाले विज्ञापन होते हैं उससे अगले पन्ने
में अलग से छपा चित्र देखते ही sms की बात सच
साबित हो गई ।
आंखें छलछला उठीं … … …
क्या सचमुच निसार भाई नहीं रहे …
… … !
पिछले महीनों में मेरी माताजी का स्वास्थ्य सही न रहने के कारण न
तो मैं निसार भाई के
यहां जा पाया था , और न
ही यह भी याद आ रहा कि अक्सर आने वाले उनके मोबाइल कॉल का सिलसिला कब ख़त्म हुआ …
… …
लगभग दस-बारह महीने पहले रहमान भाई ( निसार भाई के 25 वर्ष से भी
अधिक पुराने मित्र/शागिर्द ) द्वारा अपना मकान बेच कर जयपुर जा बसने के बाद से निसार भाई का मेरे घर आना भी नहीं हुआ
क्योंकि रहमान भाई ही अपनी गाड़ी पर उनको ले आते थे । मैं पहले की तरह आठ-दस हफ्ते
से उनके यहां चला जाता … उनके फोन तो जब-तब मिल ही
जाते थे … ( मोबाइल में एकाध वार्तालाप की
रिकॉर्डिंग सुरक्षित है … उनके जाने के बाद उनकी
आवाज़ को उनके ख़ास अंदाज़ में सुनते वक़्त हर बार आंखें भर आती हैं …)
मैं बीकानेर के साहित्यिक कार्यक्रमों से वर्ष 1999 के पूर्वार्द्ध
के बाद जुड़ा था । पता नहीं कितने अनजान लोगों से संपर्क बढ़ता ही गया । शनिवार , 30 जून 2000 को प्रज्ञा संस्थान द्वारा मेरे प्रथम एकल काव्य पाठ से पहले
निसार भाई सहित असंख्य साहित्यिक अभिरुचि और समझ रखने वाली हस्तियों का मैं प्रिय
पात्र बन चुका था । निसार अहमद अनजान साहब को निसार भाई के रूप में मैंने नौगजा पीर दरगाह में आयोजित एक मज़हबी तरही मुशायरे में
शिरक़त के बाद एक दिन बी सेठिया गली में मुलाकात के बाद जाना । वे किसी चाय की
दूकान के बाहर पट्टी पर बैठे थे । मैं साइकिल पर उधर से निकला तो एक तेज़ आवाज़ –‘अरे लाला राजेन्द्रजी ! रुकिये जनाब !’ सुन कर
ठहर गया था । निसार भाई ने एक अन्य कविगोष्ठी में मेरे द्वारा पढ़ी गई एक ग़ज़ल का शे’र -
“ मुंह पर सुन कर दाद ओ नादां शाइर यूं महज़ूज़ न हो
मुमकिन है वह शोर हो गाली , वह तेरी वा’वाह न हो ”
हूबहू सुना कर मुबारकबाद देते हुए कहा – ‘इसमें आपने महज़ूज़ का इस्तेमाल बहुत ख़ूबसूरती से किया … ’
उनकी याददाश्त कमाल की थी ।
चाय पिलाने के साथ उन्होंने अपनी जेब में लगे रहने वाले तीन-चार
पेन में से एक निकाल कर मुझे देते हुए कहा कि -
‘लाला , जिसमें क़लम की इज़्ज़त रखने की
कुव्वत और सलाहियत नज़र आती है उसे मैं क़लम भेंट किया करता हूं …’
मैंने कानों में इत्र के फाहे डाल रखे थे … उन्होंने ख़स की गंध की तारीफ़ की तो मैंने इत्र की फुरैरी निकाल कर उनके
कान में लगा दी । उन्होंने कहा कि आइंदा कैसे काम चलेगा … मैंने अपने घर का ठिकाना समझाते हुए आने का आमंत्रण दे दिया । …और इस तरह हम दोनों का एक-दूजे के यहां
आवाजाही का सिलसिला बन गया ।
निसार भाई के साथ
मेरा रिश्ता बहुत निष्कपट और आत्मीयता से भरपूर था , जहां औपचारिकता का नामो-निशान
नहीं था । उम्र में मुझसे बड़े होने के बावजूद ऐसा एक भी दिन मुझे याद नहीं आ रहा
जब मैंने उनके पांव छुए हों … (जबकि अपने पारिवारिक संस्कारों के कारण ऐसे अनेक
कुटिल बुजुर्गों के भी पांव छूते रहना पड़ता है , जिनके स्पष्ट दोगले व्यवहार के
कारण उनके प्रति सच्ची श्रद्धा और सम्मान की भावना मन से प्रस्थान कर चुकी है ।) …और
उनका मेरे साथ अपनत्व और विश्वास का नाता था कि बहुत दिन मुलाकात या वार्तालाप को
हो जाते तो मोबाइल पर नाराज़गी जताते हुए अधिकारपूर्वक कहते –‘ ख़ुदा के बंदों ,
ज़िंदा हो तो सबूत तो दिया करो … … …’ शीघ्र ही सामान्य हो’कर सबकी ख़ैरियत पूछने
लगते , ताज़ा कलाम सुनाते , सुनते … और जल्द मिलने की बात करते ।
… और छोटा होने के
उपरांत भी मुझे इतना मान देते कि उनके यहां जाने पर वापसी के वक़्त मना करने के
बावजूद मुझे गली के नुक्कड़ तक छोड़ने आते । कभी उन्हें पता चल जाता कि उनके यहां मुझे मेरे बच्चों में से कोई छोड़ने आया था , तो यह समझ कर कि कहीं मेरी तबीयत नरम न हो इसलिए अपने भतीजों में से किसी
को गाड़ी पर मुझे मेरे घर छोड़ कर आने को भेजते ।
सिगरेट पिया करते थे
… लेकिन मुलाकात के दौरान हमेशा पूछ्ते कि धुएं से मुझे परेशानी तो नहीं हो रही …
।
वे मेरी मां को काकी कहते थे । जब भी घर आते उन्हें सलाम कहते , पांव छूते , घर में सबको गिन गिन कर
टॉफियां देते । मुझसे मेरे गीत-ग़ज़लें तरन्नुम में सुनते … मेरे एक गीत “ तुम जीवन की नव तरुणाई हो , और मैं ढलता यौवन हूं …” की अक्सर फ़र्माइश
करते । मेरी तारीफ़ भी करते , यह भी कहते कि –
‘तुम क्या समझते हो मैं तुम्हारी रचनाएं सुनने आता हूं ?
मैं तो काकी के दर्शन के लिए आता हूं … मेरी मां बिलकुल ऐसी ही थी … मुझे
तुम्हारी मां में अपनी मां मिल जाती है … ’
निसार भाई से प्यार बढ़ा
तो बढ़ता ही चला गया …
शुगर का मर्ज़ पाल रखा था उन्होंने । मेरी श्रीमतीजी को आते ही कह देते ‘बेटा , मेरे लिए बिना चीनी की चाय लाना ’ …दो-चार बार के बाद तो श्रीमतीजी को ख़ुद ही याद रहने लगा , वह निसार भाई के कप में निशान के लिए चम्मच डाल कर ले आती ।
निसार भाई बिना चीनी
वाली चाय को चम्मच से हिलाने लगते …
मैं और रहमान भाई हंसते कि चीनी है ही नहीं , क्या हिला रहे हैं … कहते- ‘मेरी बहू का प्यार कम मीठा थोड़े ही है … अल्लाह उम्र दराज़ करे , मेरे छोटे भाई के घर में प्यार-मुहब्बत-दौलत-बरकत में दिन-रात इजाफ़ा हो …’
वे जब भी फोन करते मेरी मां को सलाम के साथ मेरे तीनों बेटों गौरव , वैभव , विवेक का नाम लेना नहीं भूलते ।
मेरे बड़े बेटे के विवाह के बाद उन्हें हमारे परिवार की नई सदस्य , हमारी बहू रेशम का नाम भी याद
रहने लगा …और दिव्यांशी के रूप में मेरे घर पोती आ गई
तो उसका नाम भी ।… उनके यहां जाता तब भी गिन कर आठ
टॉफियां ज़रूर देते … घर आने पर नन्ही दिव्यांशी की कम्प्यूटर पर वीडियो और फोटो देखते हुए
अचानक उठ खड़े होते , जेब से चॉकलेट निकाल कर फोटो
में दिव्यांशी के मुंह से लगा कर ख़ुश होते , कहते –
‘जनाब राजेन्द्रजी ! आप तो दादा हैं बस , मैं बड़ा दादा हूं दिव्यांशी का । ‘
आते तो वे अधिकतर शाम के बाद ही थे । संयोग ऐसा रहा कि उनकी
दिव्यांशी से मुलाकात नहीं हुई कभी । उसके जन्म के बाद वे जब भी आए … संयोग से वह ननिहाल गई मिली । …लेकिन एक
भी फोन-मोबाइल वार्ता ऐसी नहीं रही जब उन्होंने मेरे पूरे परिवार के साथ दिव्यांशी को याद न किया हो । एक बार
उन्होंने कहा कि- 'अब दिव्यांशी लगभग डेढ़-पौने दो साल की हो
जाएगी तब ही आना होगा मेरा आपके यहां । …या कभी भतीजे (
मेरे किसी बेटे को ) को गाड़ी ले’कर मुझे लेने भेज दो तो आ
पाऊंगा … ।' ( मैं बतादूं कि
निसार भाई भी स्कूटर-मोटरसाइकिल नहीं चलाते थे , मैं
भी नहीं जानता …)
लेकिन, अब वे हमेशा के लिए विदा ले’कर जन्नतनशीं हो चुके हैं
… … …
… … …
आज मैं याद करने बैठा हूं तो एहसास हो गया कि निसार भाई के मेरे
साथ और मेरे परिवार के साथ जैसे आत्मीय संबंध , जितने इंसानी त’अल्लुकात रहे हैं , उनके बारे में लिखना सहज नहीं ।
एक इंसान के रूप में निसार भाई विशुद्ध इंसान थे । मुसलमान की
कट्टर छबि उनको छू भी नहीं गई थी । उन्हें गीता-रामचरितमानस के श्लोक और छंद ही
नहीं , वेदों की ॠचाएं भी याद थीं । एक बार
उन्होंने मुझे रावण रचित शिव तांडव स्तोत्र सुनाया तो मैं हतप्रभ रह गया । पाक
क़ुर्आन की आयतें और फ़ारसी में लिखे का अर्थ तो कई बार प्रसंगवश बताते ही थे । ग़ज़लों में सांप्रदायिक सौहार्द के भाव और उर्दू शब्दों के बीच
ख़ूबसूरती से हिंदी क़ाफ़ियों को नगीने की तरह जड़ देने का उनका विशेष अंदाज़ कुछ
दक़्यानूसों को चुभ भी जाता था ।
स्वयं को कुटिल लॉबियों के अनुरूप वे भी कभी नहीं ढाल सके थे … स्वयं के लिए कहते – ‘मैं तो औघड़ बाबा हूं , मुझसे बात करना हर किसी के बस का रोग नहीं … !’
वैसे , शाइरी में रुचि रखने वाले कई हिंदू-मुस्लिम नौजवान
उनसे इस्लाह लेने आया करते थे …
मस्तमौला ऐसे थे कि घर
की प्रिंटिंग प्रेस होने के बावजूद भी अपना लिखा हुआ किताबों की शक्ल में लाने को
कभी उतावले नज़र नहीं आए । … और तो और , अब तक उनकी एकमात्र प्रकाशित पुस्तक हादसाते-हयात उनके भाइयों-भतीजों द्वारा छाप कर तैयार कर देने के बावजूद भी उन्होंने
उसे किसी अकादमी, संस्था या व्यक्ति विशेष तक पहुंचा कर फ़ायदा उठाने की कोई कोशिश नहीं की । 1999 में उनसे परिचय के
बाद उनके यहां जाना शुरू हुआ तो बिना बाइंड की हुई हादसाते-हयात देख कर मैं और रहमान रूहानी कहा करते कि इसका इज्रा ( लोकार्पण ) तो करालें … हमारे
बार-बार आग्रह के बाद ही 18 मई 2003 को इस पुस्तक का लोकार्पण कार्यक्रम मशहूर
शाइर जनाब के के सिंह मयंक की उपस्थिति में संपन्न हुआ । इस कार्यक्रम में उनके ख़ास इसरारो-मुहब्बत
के कारण मैंने उनकी दो रचनाओं की सस्वर प्रस्तुति दी ।
यहां इस अक्खड़ और कठोर–से
लगने वाले इंसान के कोमल कलेजे की एक झलक प्रस्तुत करना चाहता हूं । मेरी तरन्नुम
और गीत-ग़ज़लों की धुनें बनाने के मेरे विशेष गुण के कारण एक बार उन्होंने रहमान भाई की मौजूदगी में अपनी लिखने की मेज के पीछे से
एक बिना ज़िल्द की किताब निकाल कर कोई ग़ज़ल गुनगुनाने को कहा ।
वह हादसाते हयात देखने का मेरा पहला मौका था ।
मैंने पन्ने पलटे … हर
रचना बह्र में , हर रचना मयारी !
मैंने छोटी बह्र की ग़ज़ल चुनी और गाने लगा –
‘आज उनको सलाम कर आए
ज़िंदगी को तमाम कर आए
चंद ख़ुशियां जो पास थीं अपने
आज वो उनके नाम कर आए
सुबह होते ही हम गए थे वहां
बातों-बातों में शाम कर आए ’
हम तीनों उनके कमरे में पलंग पर बैठे थे । ग़ज़ल पूरी होते होते अचानक निसार भाई ने किताब मेरे हाथ से छीन कर सामने दीवार की तरफ़ फेंक दी । मैं और रहमान दोनों चौंक गए । उनके चेहरे की तरफ़ देखा … निसार भाई रो रहे थे । कुछ लम्हे माहौल में
ख़ामोशी बनी रही … फिर निसार भाई ने कहा – ‘ लाले ! रुला दिया तुमने …पत्थर को पिघला दिया !
मेरी ही रचना का अर्थ अच्छी तरह से आज समझ आया मुझे … ’
… इस घटना को तथा निसार भाई की और बहुत सारी बातों को याद करते हुए मन भर आता है । इसी तरह एक रविवार को तय हुआ कि आज , पूरा दिन सोने वाले निसार भाई सोएंगे नहीं , हम तीनों रहमान भाई के यहां इकट्ठा हो’कर आपस में कलाम सुनेंगे-सुनाएंगे । छुट्टियों के कारण रहमान भाई के बीवी-बच्चे जयपुर ननिहाल गए हुए थे । मैं तय समय से घंटा भर से भी अधिक लेट पहुंच पाया । निसार भाई भी पहुंचे ही थे । रहमान भाई ने गोष्ठी देर शाम तक चलने की उम्मीद में समोसे नमकीन का पूरा बंदोबश्त पहले ही किया हुआ था । चाय बन रही थी तब तक पाकिस्तान के कई ग़ज़लकारों-गायकों की सीडी लगादी प्लेयर में … यह सिलसिला कुछ लंबा खिंच गया ।
मेरी ही रचना का अर्थ अच्छी तरह से आज समझ आया मुझे … ’
… इस घटना को तथा निसार भाई की और बहुत सारी बातों को याद करते हुए मन भर आता है । इसी तरह एक रविवार को तय हुआ कि आज , पूरा दिन सोने वाले निसार भाई सोएंगे नहीं , हम तीनों रहमान भाई के यहां इकट्ठा हो’कर आपस में कलाम सुनेंगे-सुनाएंगे । छुट्टियों के कारण रहमान भाई के बीवी-बच्चे जयपुर ननिहाल गए हुए थे । मैं तय समय से घंटा भर से भी अधिक लेट पहुंच पाया । निसार भाई भी पहुंचे ही थे । रहमान भाई ने गोष्ठी देर शाम तक चलने की उम्मीद में समोसे नमकीन का पूरा बंदोबश्त पहले ही किया हुआ था । चाय बन रही थी तब तक पाकिस्तान के कई ग़ज़लकारों-गायकों की सीडी लगादी प्लेयर में … यह सिलसिला कुछ लंबा खिंच गया ।
मैंने हबीब वली मोहम्मद के गाए एक-दो नग़्मों के कुछ बंद गुनगुनाए … निसार
भाई अपने सोफे पर से उठे … बिना कुछ बोले चप्पल पहनी , कमरे के
दरवाज़े से निकल कर खिड़की खोल कर बाहर चले गए … … … । वे सिगरेट पीते थे , हम सोचते रहे शायद सिगरेट लाने गए होंगे … लेकिन दो-तीन घंटे
जब तक हम आपस में सुनते-सुनाते रहे वे नहीं आए … और निशस्त अधूरी ही रही … … …
शब्द और स्वर की गहराई उन पर बहुत असर करती थी ।
शब्द और स्वर की गहराई उन पर बहुत असर करती थी ।
निसार भाई के साहित्यिक
अवदान के बारे में ईमानदारी से सही सही आकलन करना बहुत बड़ी चुनौति है … पांच हज़ार से अधिक ग़ज़लें , गीत क़त्आत , हम्दो-ना’त , मर्सिया , दोहे कितना कुछ अदबी ख़ज़ाना उनकी डायरियों
में है … । उनकी कई ग़ज़लों में सौ-सवा सौ शे’र से ज़्यादा भी हैं , नज़र मौजू पर
तो उनका पूरा दीवान है । अभी तक उनका मह्ज़ 151 ग़ज़लियात का एक मज्मूआ हादसाते-हयात मंज़रे-आम तक पहुंचा है
। उनकी पचासों डायरियों में उनका जीवन भर का अप्रकाशित
सृजन अगर ग़लत और मतलबपरस्त हाथों में चला गया तो उनके साथ बहुत बड़ी नाइंसाफ़ी हो
सकती है ।
जिन लोगों ने निसार भाई को उनके जीते जी किसी छोटे-से प्रशासनिक-अकेडमिक नाम-इनआम-सम्मान तक से
महरूम रखा और रखाया , सुर्खियों में बने रहने का हुनर जानने
वाले ऐसे लोगों के माध्यम से उनके हक़ में अब भी इंसाफ़ होगा , इसके कम ही आसार हैं।
आए दिन साहित्यिक आयोजनों का दम भरने वाले बीकानेर के अंदर के एक अलग ‘महान बीकानेर’ द्वारा सच्चे गुणियों को जीते जी नकारने , उन्हें नाम-इनआम तथा साहित्यिक फ़ायदों-अनुदानों से हरसंभव तरीके से दूर रखने की 'महान परम्परा' निसार भाई जैसे पांच हज़ार से अधिक ग़ज़लों का सृजन करने वाले रचनाकार की मृत्यु के संदर्भ में भी कायम रही । तथाकथित कला-साहित्य से संबद्ध पचासों संस्थाओं और तथाकथित सैंकड़ों बुद्धिजीवियों में से किसी को इस अद्वितीय शायर को मरणोपरांत श्रद्धांजलि देने के लिए शोकसभा के लिए आज चौदह दिन बाद भी न वक़्त है न इच्छा । हालांकि गुणी किसी एहसान का मोहताज़ जीते जी भी नहीं होता … !
आए दिन साहित्यिक आयोजनों का दम भरने वाले बीकानेर के अंदर के एक अलग ‘महान बीकानेर’ द्वारा सच्चे गुणियों को जीते जी नकारने , उन्हें नाम-इनआम तथा साहित्यिक फ़ायदों-अनुदानों से हरसंभव तरीके से दूर रखने की 'महान परम्परा' निसार भाई जैसे पांच हज़ार से अधिक ग़ज़लों का सृजन करने वाले रचनाकार की मृत्यु के संदर्भ में भी कायम रही । तथाकथित कला-साहित्य से संबद्ध पचासों संस्थाओं और तथाकथित सैंकड़ों बुद्धिजीवियों में से किसी को इस अद्वितीय शायर को मरणोपरांत श्रद्धांजलि देने के लिए शोकसभा के लिए आज चौदह दिन बाद भी न वक़्त है न इच्छा । हालांकि गुणी किसी एहसान का मोहताज़ जीते जी भी नहीं होता … !
मलाल इतना सा है कि मेरे प्यारे शहर में सच्चे गुणी को मान-सम्मान इनआम-इकराम तो दूर … , उसके हक़ की पहचान तक से उसे वंचित किया जाता है … …
…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
मोबाइल : 09314682626
46 टिप्पणियां:
हार्दिक श्रद्धांजलि..
छ
निसार साहब और उनकी बेहतरीन शायरी से परिचय हुआ।
उनके निधन का समाचार जानकर दुख हुआ।
अल्लाहताला उन्हें जन्नत बख़्शे।
Nisaar bhai ko naman !
मेरी विनम्र श्रधांजलि है निसार भाई को ... कलम के धनि लाजवाब शाएर को मेरा सलाम ...
निधन का समाचार जानकर दुख हुआ। हार्दिक श्रद्धांजलि...
श्रधांजलि इश्वर उनकी आत्मा को शांति पहुचाएं....
सुव्यवस्था सूत्रधार मंच-सामाजिक धार्मिक एवं भारतीयता के विचारों का साझा मंच..
राजेंद्र जी......
निसार भाई के बारे में जान कर बेहद अफ़सोस हुआ.
साथ ही उनकी गजलों से भी परिचय हुआ..!
गुनिजन किसी की तारीफ के मोहताज़ नहीं होते..
जो उनको जानते हैं वो उनकी दिल से इज्ज़त करते हैं!
आपका उनका प्रति प्रेम इस बात को दर्शाता है !!
निसार साहब के बारे में ऐसी महत्त्वपूर्ण जानकारी
पढ़ कर मन को सुकून हासिल हुआ
अहले अदब , हमेशा हमेशा उन्हें याद रखेगा
आभार .
नमन एवं श्रद्धांजलि!!
हार्दिक श्रद्धांजलि।
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TOP HINDI BLOGS !
राजेंद्र जी,नमस्कार.
साहित्य के क्षेत्र में अच्छी पैठ रखने वाली बीकानेर शहर की निसार भाई के प्रति यह उपेक्षा समझ से बाहर है.वैसे औघड़ बाबाओं और गुटबंदियों से दूर रहने वालों के लिये यह बर्ताव सर्वथा अनपेक्षित भी नहीं है.
निसार भाई के साथ बिताए गए समय के संस्मरणों और उनकी रचनाओं से अभिभूत हूँ.
दिवंगत जीवात्मा को हार्दिक श्रद्धांजलि .
निसार भाई के भाई के बारे में बहुत अच्छा भी लगा और उनके प्रति लोगों की बेरुखी से दुःख भी पहुंचा. हम पता नहीं कब अदीबों की कदर करना सीखेंगे...शायद येही कारण है के हमारी सोच अब उतनी परिष्कृत नहीं रह गयी है . हम लोग छोटी छोटी बातों और अपने तक ही सीमित रह कर बहुत कुछ खोते जा रहे हैं. खुदा उनकी रूह को करवट करवट जन्नत अता करे ये ही दुआ करता हूँ...
नीरज
बहुत ही मार्मिक लिखा है भी. मन भर उठा. इतने अच्छे व्यक्ति चले गए. आपके प्रति उनके मन में सच्चा स्नेह था. अपनी मासिक पत्रिकाके सितम्बर अंक में यह संस्मरण ले रहा हूँ.
sansamaran mujhe email karane kakasht kare...
निसार भाई को विनम्र श्रद्धांजलि|आपने बहुत ही आत्मीय ढंग से याद किया है एक बेहतरीन मित्र और शायर को |आभार
बहुत सुन्दर शब्दों में उकेरा है आप ने अपनी भावनाओं को|
उन्हें मेरा भी नमन.......
भाई राजेन्द्र जी
सच्चे इंसान और कलम के धनी...गुणी रचनाकार निसार भाई के असामयिक निधन पर आपके साथ पूरा हिंदी ब्लॉग जगत अत्यंत दुखी है |
अल्लाह उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिजनों को इस संकट की घडी से उबरने का साहस बख्शे |
अनजान बीकानेरी साहब की कृतियाँ उन्हें युगों-युगों तक अमर रक्खेंगी |
अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित ......
राजेन्द्र भाई,
मैं समझ सकता हूँ इस व्यक्तिगत क्षति का अर्थ और अपनी संवेदनाओं के साथ उपस्थित हूँ।
मरहूम शायर 'निसार' साहब को ज़न्नत नसीब हो।
मीडिया में स्थान प्राप्त होना न होना एक व्यापारिक व्यवस्था का अंश है, उसका कोई महत्व नहीं है। महत्व इसका है कि 'निसार' साहब ने कितने दिलों में, कैसी और कितनी जगह पाई।
मरहूम 'निसार' साहब के चित्र पर दो शेर अभी अभी हुए हैं कि:
मुद्दतों कोशिशें करो फिर भी,
ये सुकूँ तो, नसीब होता है।
ऑंख है, देखती है बस उसको
जो भी दिल के करीब होता है।
विनम्र श्रद्धांजलि !!
___________________
शब्द-शिखर : 250 पोस्ट, 200 फालोवर्स
आदरणीय भाईसाहब तिलक राज कपूर जी
@ अच्छे शे’र लिखे हैं
आप बेहद हुनरमंद अदीब हैं , मैं ब्लॉगिंग में जबसे ( साल-डेढ़ साल से ) आया हूं , आपके लेखन का प्रशंसक हूं …
# मीडिया , जो बिके हुए लोगों का पर्याय बन चुकी है - से कोई शिकायत अथवा अपेक्षा है भी नहीं ।
हां, दोहरे आचरण से भरी , संवेदनाहीन साहित्यिक बिरादरी का कुरूप पक्ष देख कर अवश्य घिन्न होती है ।
एक ठोस सृजन करने वाले , मान-सम्मान के सच्चे हक़दार शाइर की असामयिक मौत पर जहां हर तथाकथित साहित्यकार , हर साहित्यिक संस्था एकदम ख़ामोश है , कल को मरहूम शाइर के नाम से कोई पुरस्कार घरवाले शुरू करदें तो मर्सिया गाने वालों की लाइन लग सकती है …
लघुकथाकार नदीम अहमद नदीम ने स्थानीय दैनिक युगपक्ष (अंक 10 जुलाई) में अपने कॉलम शब्दसंगत में वरिष्ठ कवि आलोचक श्री नंदकिशोर आचार्य के लिए 2-3-4 जुलाई को आयोजित त्रिदिवसीय कार्यक्रम ‘दृष्टिपर्व’ का ज़िक्र करते हुए लिखा कि – “ दृष्टिपर्व के तीन दिवसीय कार्यक्रम में दो मिनट , मात्र दो मिनट मरहूम शायर निसार अहमद बैंस ‘अनजान’ बीकानेरी को श्रद्धांजलि के रूप में नहीं दिए जा सकते थे क्या ? यह प्रश्न ज़रूर अपनी प्रासंगिकता रखता है , लेकिन इसका उत्तर अब अपने मायने खो चुका है ।”
date Wed, Jul 13, 2011 at 6:00 AM
subject Re: देर तक आज ज़िक़्रे-यार चले
उस्ताद शायर को श्रृद्धांजलि. यह सामग्री दिव्य नर्मदा पर भी दूँ क्या?
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
आदरणीय आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी
यह सामग्री दिव्य नर्मदा पर अवश्य दें ।
आप जैसे ईमानदार गुणी के माध्यम से एक गुणी रचनाकार के प्रति सम्मान के इन भावों के लिए मैं कृतज्ञ रहूंगा ।
मैं पूरी पोस्ट मेल से आपको भेज दूंगा ।
आदरणीय गिरीश पंकज जी
आपकी प्रतिष्ठित पत्रिका में निसार भाई की स्मृतियों को स्थान मिलने से मेरे मन को संतुष्टि मिलेगी … साभार कृतज्ञ हूं ।
पूरी पोस्ट मेल से भेज रहा हूं ।
आदरणीय चैनसिंह शेखावत जी
आप निसार भाई से मिले थे , यह जान कर अच्छा लगा ।
बीकानेर में गुणी की उपेक्षा नहीं , षड़यंत्रपूर्वक उसे नाम और मान-सम्मान से वंचित किया-कराया जाता है …
हर हर क़लम थामे छोटे-मोटे शख़्स की झोली में येन केन प्रकारेण हथियाई हुई , किसी गुणी के हक़-हिस्से की कोई न कोई छोटी-मोटी 'रेवड़ी' मिल जाएगी ,
जबकि अपने गुणों के बलबूते पर पहचान बनाने वाले सच्चे सरस्वती-पुत्रों के साथ कुंठित लॉबियां आपसी तालमेल द्वारा हर कहीं , हरसंभव कुचालें करती मिलेंगी …
लेकिन मुझ जैसे आत्म अभिमानी तब भी कहते हैं -
हवा रुकै नीं , लाख जे आडा पड़ै पहाड़ ।
गुमै बडां री शान जद , करै गुणी सूं राड़ !!
आदरणीय भाईसाहब नीरज गोस्वामी जी
आप-हम जैसे संस्कारवान रचनाकार तो अदीबों की कद्र सच्चे हृदय से निस्वार्थ निष्कपट निर्लिप्त भाव से करते ही आए हैं … आप-हम तो इंसानियत से मालामाल हैं ।
जिन 'बेचारे ग़रीबों' के पास ईमानदारी और सद्भावनाओं का टोटा है , शर्म उन्हें आए तो …
आदरणीय रंगनाथ सिंह जी , आदरणीय महेन्द्र वर्मा जी , आदरणीय जोगेश्वर गर्ग जी , आदरणीय दिगम्बर नासवा जी , आदरणीय सुधीर जी , सुव्यवस्था सूत्रधार मंच , आदरणीया पूनम जी , आदरणीय दानिश जी , आदरणीय समीर जी , आदरणीय जयकृष्ण राय तुषार जी , आदरणीय सुरेन्द्र सिंह जी , रजनीश जी , सोनू जी आप सबका हृदय से आभार !
आपके आने से निश्चित रूप से एक अच्छे इंसान , एक गुणी रचनाकार , एक प्रिय को खो देने के एहसास से व्यथित मेरे मन को राहत मिली है ।
कलम के जादूगर को विनम्र श्रद्धांजली.
रामराम.
हार्दिक श्रद्धांजलि....
निसार भाई से परिचय कराने के लिए आपका आभार राजेंद्र भाई !
आपके खूबसूरत दिल के लिए बहुत बहुत शुभकामनायें !!
निसार साहब दिलों में हैं... रहेंगे ...! नमन !
आपके माध्यम से शायर निसार की काबिलियत से परिचित हुआ। गज़लों में उनकी काफी दम है और आपकी प्रस्तुति भी बड़ी अच्छी है । आपने इस पोस्ट के माध्यम से निसार जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी है। मेरी तरफ से भी नसीर जी को विनम्र श्रद्धांजलि ।
from s r ratna_ma@yahoo.com
i am with you ,
when sudarshan Fakir died in jallundar aisa hi kuch mahaoul tha
ek shraddanjali ayi tv per by mr jagjite singh .... his album "latest " is all of sudarshan fakir & jagjit ttok this 2 minutes also for self publicity :(
since that eveingn meri nazron se gir gaye mr jagjit singh
sr
राजेंद्र जी, शायर को सही सम्मान उसके अपने दौर में कम ही मिल पाता है. आपने निसार जी की जो ग़ज़लें यहाँ दी हैं, उनकी सादगी और काव्यात्मक चमत्कार ज़बरदस्त है. हम सब की ओर से उन्हें श्रद्धांजलि.
राजेंद्र जी गुणी जनो की भगवान को भी आवश्यकता होती है..मेरी उन्हें विनम्र श्रद्धांजली....
ये कोई ऐसी पोस्ट नहीं है जिस पर वाह वाह लिखूँ, या तारीफ़ों के क़सीदे काढ़ूँ|
बस यही कहूँगा
उफ ये दस्तूर दुनिया में बनाया है किसने|
बेबसी के उदर से जन्मता शायर क्यूँ है||
दुख होता है ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ कर और मन फिर से सोचना शुरू कर देता है "प्यारे किस के लिए लिखते हो"
ऊपर वाले से यही प्रार्थना है कि निसार भाई को चिर शांति प्रदान करें और ये दुनिया वाले उन की कृतियों को यथोचित सम्मान देने की कृपा करें|
आदरणीय ताऊ रामपुरिया जी , आदरणीया वर्षा सिंह जी , आदरणीय सतीश सक्सेना जी , आदरणीय बहुभाषी मोहन थानवी जी , आदरणीय एस आर रत्न जी , आदरणीय भूषण जी , आदरणीया माहेश्वरी कानेरी जी , आदरणीय नवीन चतुर्वेदी जी
मानवीयता से प्रेरित निस्वार्थ संवेदना के लिए मैं आप सबके प्रति हृदय से आभारी हूं ।
आप सबके आने से निश्चित रूप से एक सच्चे इंसान , एक श्रेष्ठ रचनाकार , एक प्रिय आत्मीय को खो देने के एहसास से व्यथित मेरे मन को बहुत राहत मिली , आभार … … …
( छपते छपते : आख़िरकार 16 जुलाई 2011 को एक संस्था द्वारा निसार भाई की मृत्यु के बीसवें दिन उनकी स्मृति में एक श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई । … और मुझ जैसे , जो किसी भावी नुकसान से डरे बिना दोहरेपन के विरुद्ध लिखने-बोलने वाले हैं – उन पर एहसान भी जताया गया …
धन्य है बीकानेर की साहित्यिक लॉबिंग ! )
Nisaar Sahab ko shradhanjali... Bhagwan unki aatma ko shanti de!!
प्रिय भाई,
आपका ब्लॉग 'शस्वरं' देखा| दो दिन पहले ही लंबे प्रवास के बाद दिल्ली से लौटा हूँ| सुख मिला आपसे, आपकी रागात्मकता से, आपके व्यक्ति एवं कृतिकार से मिलकर| जन्नतनशीं मोहतरिम निसार भाई की रचनाओं से, उनके स्नेहिल व्यक्तित्त्व को प्रस्तुत कर आपने हम सभी रचनाधर्मियों पर उपकार किया है| आभारी हूँ | रचना दीक्षित की कविताएँ भी पढ़ीं| मुझ पर आपकी टिप्पणी - भाई, हम सब समधर्मी हैं, अस्तु, समान हैं| उसी रूप में रहने दें| अपना स्वर बनाये रखें|
आपका
कुमार रवीन्द्र
aapke shabdo ne dil ko chhoo liya .saari rachnaye laazwaab hai unhe shat shat naman .
जानेवाला जाकर भी पूरी तरह कहाँ जा पता है ----- निस्सार भाई के शब्द आपकी आवाज में ----अभी यहीं तो है ---निस्सार भाई-----!पूर्ण शर्मा पूरण
आपकी आवाज में निस्सार साहब की गजलें सुनकर कैसे कहूं निस्सार साहब अब नहीं रहे ---------एच आर चौधरी पी एच सी रामगढ नोहर
janewale chale jate hain pr unki yaden kabhi nhi jati.
raj ji
hriday se bhavbhini sridhanjali
aisi mahan hastiya kabhi nahi marti
balki unki najme aap jaise logo ki aawajo me jinda rahti hai
roti huyee yaden
gati huyee gajle hai
awo marke bhi jinda hai
hum un bin jiye kaise
madhu MM
tripathi873@gmail.com
http://kavyachitra.blogspot.com
निसार साहब दिलों में हैं... रहेंगे ...! नमन !
** आज फिर उनका ख्याल आया है...
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