ब्लॉग मित्र मंडली

21/6/10

आए न बाबूजी



 


सादर वंदे !
पिता दिवस पर
और कुछ भी न कह कर ईश्वर से प्रार्थना करता हूं , कि
किसी का अपने पिता - माता से साथ न छूटे ।
जिनसे पिता - माता बिछड़ गए ,
उन्हें परमपिता परमात्मा
यह दुःख सहने की शक्ति और संबल प्रदान करे ।

 
लीजिए , 
प्रस्तुत है पूज्य पिताश्री को समर्पित एक ग़ज़ल !
 मैं व्यक्त नहीं कर पाऊंगा कि 
इस ग़ज़ल को लिखने से ले'कर इसकी धुन बनाने के बाद  तक
कितनी मुश्किलों से 
मैं आंसुओं के सैलाब में डूबते -उतराते
इसकी रिकॉर्डिंग संपन्न कर पाया हूं ।
मेरा अनुरोध है ,
आप एक बार ज़रूर सुनें !


* मुझसे अब खो गई है वो उंगली *
* जिसको था'मे उठाया था मैंने पहला क़दम ! *
* अब छुआ करता हूं हवा में मैं *
* उन हाथों को जो हमेशा ही रहे सर पर मेरे ! *
* एक एहसास बन कर क़ाइम हैं अब मेरे पूरे वुजूद पर… *
* मेरे बाबूजी ! *

*** आए न बाबूजी  ***
गए थे छोड़ कर इक दिन , न वापस आप घर आए !
न क्यों फिर आप बाबूजी ! कहीं पर भी नज़र आए ?
हुई है आपकी यादों में अम्मा सूख कर कांटा ,
नयन में अश्क उनके , दिन में सौ-सौ बार भर आए !
न ही आंसू , न ग़म , हम आपके रहते' कभी समझे ,
अब आंखें नम लिये' ; हर पल लिये' दुख की ख़बर आए !
बड़े भैया को घर - मुखिया का ओहदा मिल गया वैसे ,
बड़प्पन , स्नेह , ममता , प्रेम कब कैसे मगर आए ?
जहां में अब हमारा हाल है बिलकुल यतीमों - सा ,
दिलों में अब हमारे ख़ौफ़ - डर कितने उभर आए !
न पहले धूप में झुलसे , न कांटों में ही हम उलझे ,
हुए युग लाड़ का इक हाथ वो अब अपने सर आए !
किसी से भी नहीं मिलती है सूरत आपकी जग में
हवा , ख़्वाबों - ख़यालों में कई अब रूप धर आए !
बहुत राजेन्द्र रोया , की दुआ , आए न बाबूजी ,
अभागे की दुआ में हाय रब ! कैसे असर आए ?!

-राजेन्द्र  स्वर्णकार 
©copyright by : Rajendra Swarnkar

यह रहा प्लेयर
 यहां सुन लीजिए
मेरी रचना ,

मेरी बनाई धुन पर , 
मेरे स्वर में


©copyright by : Rajendra Swarnkar



॥ पितृ देवो भव ॥

* प्रणाम *



4/6/10

"ख़ुदा लिखदूं तुम्हें" "समुंदर बूक सूं पील्यूं"


आज, बस इतना ही कि
दिल का पैग़ाम  दिल तक पहुंचे


…दिल की … दिल से … दिल कहे…

…दिल समझे … दिल ही सुने…
…ताकि दिलों को सुकून-ओ-राहत मिले…

पेश-ए-ख़िदमत है दो ग़ज़लें 
एक हिंदुस्तानी में , एक राजस्थानी में 

ख़ुदा लिखदूं तुम्हें

कहां लिखदूं, यहां लिखदूं, जहां कहदो, वहां लिखदूं
ख़ुदा लिखदूं तुम्हें मैं, मालिक-ए-दोनों जहां लिखदूं


इजाज़त हो अगर, तुमको मैं अपना मेहरबां लिखदूं
तुम्हारा हो रहूं, ख़ुद को तुम्हारा राज़दां लिखदूं

तबस्सुम को तुम्हारी, मुस्कुराती कहकशां लिखदूं
तुम्हारे जिस्म को ख़ुशबू लुटाता गुलसितां लिखदूं

अदब से सल्तनत-ए-हुस्न की मलिका तुम्हें लिखदूं
वफ़ा से ख़ुद को मैं ख़ादिम, तुम्हारा पासबां लिखदूं

तुम्हीं नज़रों में, ख़्वाबों में, ख़यालों में, तसव्वुर में,
मेरे अश्आर, जज़्बों में, तुम्हें रूहे-रवां लिखदूं

गुलाबों-से मुअत्तर हों, हो जिनकी आब गौहर-सी
कहां से लफ़्ज़ वो लाऊं  तुम्हारी दास्तां लिखदूं

सुकूं भी मिल रहा लिख कर, परेशानी भी है क़ायम
इशारों में, बज़ाहिर क्या, निहां क्या, क्या अयां  लिखदूं

यूं मैंने लिख दिया है दिल तुम्हारे नाम पहले ही 
कहो तो धड़कनें भी और सांसें, और जां लिखदूं

मिटा डालूं लुग़त से लफ़्ज़, जो इंकार जैसे हैं
तुम्हारे हुक़्म की ता'मील में, मैं हां ही हां लिखदूं 

मैं क़ातिल ख़ुद ही हूं अपना, तुम्हारा पाक है दामन
ये दम निकले, मैं उससे पेशतर अपना बयां लिखदूं

दुआओं से  तुम्हें राजेन्द्र ज़्यादा दे  नहीं सकता
यूं कहने को तुम्हारे नाम मैं सारा जहां लिखदूं   
- राजेन्द्र स्वर्णकार

©copyright by : Rajendra Swarnkar
और … यहां सुनिए, यही ग़ज़ल 
मेरी ही धुन और मेरी ही आवाज़ में
- राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
शब्दार्थ
राज़दां - रहस्य / भेद जानने वाला * तबस्सुम - मुस्कुराहट * कहकशां - आकाशगंगा
ख़ादिम - सेवक * पासबां - द्वारपाल * तसव्वुर - कल्पना * रूहे-रवां - प्राणवायु
मुअत्तर - महके हुए / सुगंधित * गौहर - ख़रे मोती * बज़ाहिर - स्पष्टतः
निहां - छुपा हुआ / गुप्त * अयां - सामने * लुग़त - शब्दकोश
हुक़्म की ता'मील - आज्ञा का अनुमोदन / पालन * पेशतर - पहले
समुंदर बूक सूं पील्यूं 

हुयो  म्हैं बावळो; थारै  जादू रौ असर लागै
कुवां में भांग रळगी ज्यूं, नशै में सौ शहर लागै

छपी छिब थारली लाधै, जिको  काळजो शोधूं
बसै किण-किण रै घट में तूं, भगत थारा ज़बर लागै

लड़ालूमीजियोड़ो तन, कळ्यां-फूलां-रसालां सूं
भरमिया रंग-सौरम सूं, केई तितल्यां-भ्रमर लागै

मुळकती चांदणी, काची कळी,   जोत दिवलै री
कदै तूं राधका-रुकमण, कदै सीता-गवर लागै

सुरग-धरती-पताळां में,  न थारै जोड़ रूपाळी
थनैं लागै उमर म्हारी, किणी री नीं निजर लागै

नीं थारै रूप जोबन रै समुंदर सूं बुझै तिषणा
समुंदर बूक सूं पील्यूं, तिरसड़ी इण कदर लागै

जपूं राजिंद आठूं पौर थारै नाम री माळा
कठै म्हैं जोग नीं ले ल्यूं, जगत आळां नैं डर लागै
-राजेन्द्र स्वर्णकार

©copyright by : Rajendra Swarnkar

समुंदर बूक सूं पील्यूं
राजस्थानी ग़ज़ल का भावार्थ

तुम्हारे प्यार में मैं बावला हो गया हूं, यह तुम्हारे ही ज़ादू का प्रभाव लगता है ।

जैसे प्रत्येक कुएं में भांग मिल गई हो, ऐसे तुम्हारे नशे की गिरफ़्त में पूरा शहर ही आया हुआ है ।

जिस किसी का भी दिल टटोलूं, तुम्हारी ही तस्वीर मिलती है , 
तुम किस किस के हृदय में बसी हो ? … ख़ूब हैं तुम्हारे भक्त !
तुम्हारा जिस्म फल-फूल-कलियों से लक-दक है, लबरेज़ है । 
रंग और ख़ुशबू से भ्रमित अनेक भौंरे-तितलियां तुम्हारे ही इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं ।
ऐ मुस्कुराती चांदनी ! ऐ कमनीय कली ! ऐ दीप की ज्योति !
कभी तुम  राधिका और रुक्मिणी लगती हो, तो कभी सीता और पार्वती !
स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में तुम्हारे जैसी कोई रूपसी नहीं है ।
तुम्हें मेरी उम्र लग जाए ! तुम्हें किसी की बुरी नज़र न लगे ।
तुम्हारे रूप-यौवन के समुद्र से तृप्ति नहीं होती ।
 …मेरी प्यास ऐसे भड़क रही है, कि हथेलियों में भर कर एक घूंट में पूरा ही समुद्र पी जाऊं ।
राजेन्द्र आठों प्रहर तुम्हारे ही नाम की माला जपता रहता है । 
सबको भय है, …कहीं मैं जोग धारण न करलूं ! 


याद रहे, आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रियाएं ही मेरी पूंजी है  

आपके सुझाव ही मेरा ख़ज़ाना है 

और आप द्वारा प्रदत्त प्रोत्साहन ही मेरे लिए प्रेरणास्रोत है !

आपके स्नेह, सहयोग और सद्भाव के लिए मैं सदैव कृतज्ञ , आभारी और ॠणी हूं और रहूंगा !

अगली मुलाकात से पहले आज जुदाई की वेला आ पहुंची ।

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