कुछ रूमानी हुआ जाए
खो गई हैं कहां वो हसीं लड़कियां
वो बदीउज्ज़मां नाज़नीं लड़कियां
आसमां खा गया, कॅ ज़मीं खा गई
दिलकुशा दिलनशीं ना मिलीं लडकियां
बादलों में चमकती थीं जो बिजलियां
हैं कहां अब वो चिलमननशीं लड़कियां
वो परीरू जिन्हें देख’ कहता था दिल
मर्हबा ! आफ़्'रीं आफ़्'रीं लड़कियां
ख़्वाब जिनकी बदौलत हक़ीक़त बने
अब कहीं क्यों वो मिलती नहीं
लड़कियां
ज़ेह्न में अब भी यादों की मेंहदी
रची
सांस में मोगरे ज्यों रमीं लड़कियां
अब भी राजेन्द्र मिलने को मिल जाती
हैं
उन-सी होगी , न है , जो वो थीं लड़कियां
-राजेन्द्र
स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
बदीउज्ज़मां – अपने समय की अद्वितीय
दिलकुशा – मन को आनंदित करने वाली
दिलनशीं – मन में रम-बस जाने वाली / हृदयस्थ













ग़ज़ल कैसी लगी ? सच सच बताइएगा !
मित्रों ! कोई हज़ार के लगभग रचनाएं कंप्यूटर में
टाइप करके डाली हुई हैं … लेकिन किसी गंभीर समस्या के चलते उन्हें खोल कर देखना भी
संभव नहीं हो रहा । कुछ रचनाओं को ब्लॉग पर डाल कर ड्राफ़्ट बनाए हुए हैं । उन्हीं में से एक को आज पोस्ट किया
है ।
नेट/कंप्यूटर की गड़बड़ियों के कारण आपसे मुलाकातें कम हो पा
रही हैं
लेकिन आपसे दूर बिल्कुल
नहीं हूं
आप हमेशा मेरे करीब हैं , और रहेंगे
हार्दिक मंगलकामनाएं !