ब्लॉग मित्र मंडली

31/10/12

बरगलाते हैं जो ; ऐसे रहबरों को नोचलें

आज एक ग़ज़ल प्रस्तुत है
हाथ मारें , औरहवा के नश्तरों को नोचलें
जो नज़र में चुभ रहे , उन मंज़रों को नोचलें
 
शौक से जाएं कहीं , परदर-दरीचे तोल कर
झूलते हाथों के पागल-पत्थरों को नोचलें
 
मुद्दतों से दूरियां गढ़ने में जो मशगूल हैं
खोखले ऐसे रिवाजों-अधमरों को नोचलें
 
छोड़ कर इंसानियत शैतां कभी बन जाइए
बरगलाते हैं जो ; ऐसे रहबरों को नोचलें
 
जो ; ग़ज़ल की सल्तनत को मिल्कियत ख़ुद की कहें
उन तबीअत-नाज़ीआना शाइरों को नोचलें
 
जो कहा राजेन्द्र ने अपनी समझ से ठीक था
वरना उसके फ़ल्सफ़े को , म श् व रों को नोचलें
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
 
मिलते हैं दीवाली से पहले पहले
आप सबके स्नेह सहयोग सद्भावनाओं के लिए आभार
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blue spinning ballदीवाली की अग्रिम शुभकामनाएं !blue spinning ball
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