जामे-मय आंखों से पीना आ गया
मर गए उन पर तो जीना आ गया
हाथ का पत्थर किनारे रख दिया
तब से जीने का क़रीना आ गया
गर्म मौसम की हवा जब झेल ली
तब से सावन का महीना आ गया
पांव मां के छू लिए हो सरनिगूं
हाथ में गोया दफ़ीना आ गया
नाम उसका जब तलातुम में लिया
मेरी जानिब हर सफ़ीना आ गया
मेरे इंसां की बलंदी देख कर
कुछ पहाड़ों को पसीना आ गया
ज़हब-से अश्आर हैं राजेन्द्र के
लफ़्ज़-लफ़्ज़ में इक नगीना आ गया
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra
Swarnkar
शब्दार्थ
सरनिगूं
: नतमस्तक , दफ़ीना : गड़ा हुआ ख़ज़ाना ,
तलातुम
: भीषण बाढ़ , सफ़ीना : नाव , ज़हब : स्वर्ण
वर्ष 2002-2003 के
किसी दिन की बात है ।
रात 9:30 बजे के आस-पास
शहर के एक उर्दूदां शायर महोदय - जिनसे मेरा
पूर्व परिचय नहीं था ; ने फोन पर इत्तिला दे’कर अगले सवेरे 9:00 बजे स्थानीय रामपुरिया
महाविद्यालय पहुंचने तथा वहां ग़ज़ल के बरजस्ताग़ोई के एक मुकाबले में शिरक़त
करने के लिए आमंत्रण दिया ।
( बरजस्ताग़ोई = हाथोंहाथ तुरंत ग़ज़ल बनाना )
सवेरे हम जा पहुंचे … स्थानीय ग़ज़लकारों के अलावा बाहर से कुछ शोअरा भी पधारे थे । निर्णायक भी बाहर के ही थे ।
वहां हाथों हाथ मिसरा दिया गया, जो था “पहाड़ों को पसीना आ रहा है”
( बरजस्ताग़ोई = हाथोंहाथ तुरंत ग़ज़ल बनाना )
सवेरे हम जा पहुंचे … स्थानीय ग़ज़लकारों के अलावा बाहर से कुछ शोअरा भी पधारे थे । निर्णायक भी बाहर के ही थे ।
वहां हाथों हाथ मिसरा दिया गया, जो था “पहाड़ों को पसीना आ रहा है”
present continues
tense का यह मिसरा ही अटपटा लगने के कारण मैंने
इसे past indefinet tense में बदल कर “पहाड़ों को पसीना आ गया” के structure पर उस निर्धारित एक घंटे के समय में यह ग़ज़ल लिख कर तरन्नुम के साथ पेश की थी । निर्धारित मिसरे में ग़ज़ल न कहने के लिए मैंने स्वयं को मुकाबले से पहले ही बाहर घोषित कर दिया था ।
इसे past indefinet tense में बदल कर “पहाड़ों को पसीना आ गया” के structure पर उस निर्धारित एक घंटे के समय में यह ग़ज़ल लिख कर तरन्नुम के साथ पेश की थी । निर्धारित मिसरे में ग़ज़ल न कहने के लिए मैंने स्वयं को मुकाबले से पहले ही बाहर घोषित कर दिया था ।
तो …इस ग़ज़ल
का जन्म ऐसे हुआ ।
अभी दो दिन
मेरा ब्लॉग गूगल की किसी समस्या के कारण REMOVED बता रहा था … मैं बता नहीं सकता
कि कितना दुखी था मैं इस कारण । आप में से कइयों ने धैर्य बंधाया और आपकी दुआओं से
मेरे दोनों ब्लॉग लौट आए ।
मैं आप सबके स्नेह-अपनत्व को बहुत मान देता हूं ।
इस बीच जिन
नये मित्रों ने शस्वरं को अपने समर्थन से धन्य किया है ,
इतनी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएं मेरी रचनाओं के लिए दी हैं ,
सबके प्रति हृदय से आभारी हूं ।
इतनी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएं मेरी रचनाओं के लिए दी हैं ,
सबके प्रति हृदय से आभारी हूं ।
55 टिप्पणियां:
वाह ...बहुत ही बढि़या प्रस्तुति ।
कल 02/11/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है।
धन्यवाद!
गहरी गज़ल..
बहुत खूबसूरत गज़ल लिखी है ..ब्लॉग वापस आने पर बधाई .
मेरे इंसान की बुलंदी देखकर
पहाड़ों को पसीना आ गया
वाह भाई-सा वाह!
बहुत उम्दा और दमदार गजल और इसके पीछे की कहानी भी बहुत रोचक है... बधाई!
ब्लॉग वापस आने पर बधाई .....बहुत ही बढि़या और रोचक प्रस्तुति ।
कुछ शब्दों के अर्थ बता कर अच्छा किया आपने.अब गज़ल पढ़ने का मजा दोगुना हो गया.
गर्म मौसम की हवा जब झेल ली
तब से सावन का महीना आ गया
शस्वरं
ब्लॉग मित्र मंडली
यह ब्लॉग
यहां से लिंक किया हुआ
वेब
यह ब्लॉग
यहां से लिंक किया हुआ
वेब
लोड हो रहा है...
गर्म मौसम की हवा जब झेल ली
तब से सावन का महीना आ गया
मेरे इंसां की बलंदी देख कर
कुछ पहाड़ों को पसीना आ गया
सुन्दर! बहुत सुन्दर पंक्तियां।
सबसे पहले तो खोये हुए ब्लॉग को फिरसे मिलने की बधाई. मुझे लगता है कि इस खबर को सुनकर भी पहाड़ों को आपके साथ साथ पसीना जरूर आ गया होगा.
गज़ल की तारीफ़ में तो क्या कहूँ आप तो शब्दों के साथ साथ सुर ताल की भी इतनी समझ रखते हैं, तो गज़ल खूबसूरत बननी ही थी. लेकिन इतने सीमित समय में सुंदर गज़ल कहना वाकई काबिले तारीफ़ है.
बधाई.
गर्म मौसम की हवा जब झेल ली
तब से सावन का महीना आ गया
बेहतरीन प्रस्तुति ।
हाथ का पत्थर किनारे रख दिया
तब से जीने का क़रीना आ गया
बहुत ख़ूब !!
बर्जस्तागोई पर तो इतनी उम्दा ग़ज़ल नमूदार हुई अगर कुछ वक़्त मिल जाता तो क्या होता
बहुत सुन्दर गज़ल्।
एक घंटे में ग़ज़ल तैयार करना -- आप जैसे दिग्गज ही कर सकते हैं ।
बहुत बढ़िया ग़ज़ल --क्या हुआ जो प्रतियोगिता में शामिल न हुई ।
बेहतरीन ।
waah waah bahut hi sundar gajal bahut pasand aayi yah ..shukriya
behtreen prastuti , badhai
हाथ का पत्थर किनारे रख दिया
तब से जीने का क़रीना आ गया
भाई राजेंद्र जी इस बेजोड़ ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल करें...एक एक शेर आपके हुनर की नुमाइंदगी कर रहा है...सुभान अल्लाह...माँ सरस्वती की कृपा आप पर सदा यूँ ही बनी रहे
नीरज
हाथ का पत्थर किनारे रख दिया
तब से जीने का क़रीना आ गया
बहुत खूबसूरत गज़ल...शुभकामनाएँ...
ज़हब-से अश्आर हैं राजेन्द्र के
लफ़्ज़-लफ़्ज़ में इक नगीना आ गया
एक घंटे में हुई इस ग़ज़ल में वाकई नगीने जड़े हैं आपने.
बहुत ही सुंदर गजल,वो भी आपने एक घंटे में लिखा.....कमाल कर दिया..मान गए आपको ,
बहुत ही सुंदर पोस्ट ...आपकी पोस्ट में आना सार्थक रहा ....
मेरे नए पोस्ट में स्वागत है ....
वह भाई राजेन्द्र जी अद्भुत गज़ल बधाई
वह भाई राजेन्द्र जी अद्भुत गज़ल बधाई
मर गए उनपर तो जीना आ गया ......
कौन है वो ....:))
'समस्या पूर्ति मंच' पर आपको पढ़ कर तो हमें क्या किसी को भी पसीना आ जाये .....
नमन गुरुदेव .....:))
bahut umdaa ghazal likhi hai.har lafj laajabaab hai.
राजेंद्र भाई,
कमाल कर रहे हैं आप तो. जहाँ हाथ डालते हैं, वहीं सोना निकाल आता है..
हर शेर प्यारे हैं, अर्थ पूर्ण हैं. उरदू कि यह अच्छी परम्परा है-एक लाइन देने की.. मुझे भी अनेक बार सौभाग्य मिला है. मेरी भी कुछ ग़ज़ले इसी कारण बनी. आप ने सुविधा ले ली और अपने हिसाब से ग़ज़ल कही, तो गलत नहीं किया. ये तो कवि का मन है. बधाई. इस ग़ज़ल के लिये ये शेर तो मुझे बहित ही पसंद आया. आपके व्यक्तित्व और संघर्ष के अनुकूल भी है. अब तो यह शेर सबका है.
मेरे इंसां की बलंदी देख कर
कुछ पहाड़ों को पसीना आ गया
आदरणीय स्वर्णकार जी, बधाई बहुत उम्दा ग़ज़ल है..
नाम उसका जब तलातुम में लिया
मेरी जानिब हर सफ़ीना आ गया...
हासिले-ग़ज़ल शेर...वाह
आपके पोस्ट पर आना बहुत ही अच्छा लगा । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
भाई साह्ब
बहुत ख़ूब ग़ज़ल कही है
पहाड़ों को पसीना आ गया का जवाब नहीं.
क्या पढ़ी भाई राजेन्द्र की ग़ज़ल
मेरे हाथों में नगीना आ गया
सादर
द्विज
‘करीना’ आ गया तो कैटरीना का क्या हुआ :)
आपकी प्रेम हरिगीतिका पढ़ने के बाद एक बार फिर से आपके ब्लॉग पर आ गयी...
फिर से गज़ल पढ़ी और आपसे सहमत हूँ !!
आपने सच ही कहा है...
"ज़हब से अशआर हैं राजेन्द्र के
लफ्ज़-लफ्ज़ में एक नगीना आ गया..."
kya bat hai? aapko gajale bhi maharat hai.
madhu tripathi MM
इस गज़ल को पढ़कर मेरा सर भी आपकी फनकारी पर सरनिगूं हो गया। हर एक शेर लाज़वाब हैं।...आभार।
बेहद ही खुबसूरत गजल ....
सर आप मेरे ब्लॉग पर आये और टिप्पणी रुपी पुरस्कार दिया ..हार्दिक धन्यवाद .....
उम्दा अशार,भावपूर्ण ग़ज़ल
उत्कृष्ट प्रस्तुति !
behad nazuk si.......khoobsurat.
.बहुत ही बढि़या प्रस्तुति ।
हाथ का पत्थर किनारे रख दिया
तब से जीने का क़रीना आ गया .....
हर शेर उम्दा है ........क्यों लिखी, कैसे लिखी ये बताकर आपकी खूबसूरत ग़जल रोचक भी बन गयी !
इस ग़ज़ल को पढ़ कर गदगद हूँ मैं
तारीफ़ करने के लिए शब्द कम पड़ रहे हैं
हार्डवर्क, चिंतन और चिरंतन मनन स्पष्ट रूप से दिख रहा है
हाथ का पत्थर किनारे रख दिया
तब से जीने का क़रीना आ गया
बहुत बढि़या प्रस्तुति ।वाह...
खुबसूरत गजल!
हाथ का पत्थर किनारे रख दिया
तब से जीने का क़रीना आ गया
हर शेर उम्दा है...बहुत खूबसूरत गज़ल.
जामे-मय आँखों से पीना आ गया,
मर गए उनपर तो जीना आ गया |
हाथ का पत्थर किनारे रख दिया
तब से जीने का करीं आ गया !
ये है शेर इसे कहते हैं शेर ...पूरी गज़ल ही लाजबाब !!
प्रिय और पूज्य दादा जी को सादर प्रणाम बड़ी मुश्किल से आशीर्वाद लेने का सौभाग्य मिला है
आज बस केवल प्रणाम ! जीवन रहा तो कभी विधिवत आपके साथ बैठकर आपका स्नेह लूटूँगा !
behad tarashi hui ghzalpdhne ka aanand mila ! aabhar !
जनाब राजेंद्र जी नमस्कार
भई ऐसी असरदार और शाहकार ग़ज़ल कहने पर
मेरी जानिब से ढेरों मुबारकबाद
हर शेर आपके हुनर की कामयाबी की दलील दे रहा है
और फ़ौरी तौर पर ढाई गयी यह क़यामत तो
वहाँ मुन्तज़मीन को भी बहुत रास आई होगी ...
और चलते चलते यह मिसरा साथ लिए जा रहा हूँ
"मर गए उन पर, तो जीना आ गया.."
भाई राजेंद्र जी नमस्कार ..
सबसे पहले मेरे ब्लॉग पे आकर जो उत्साह आपने हमें बढाया उसके
लिये आपका दिल से शुक्रिया !
आपके ग़ज़ल का हर एक शेर उम्दा है
लफ़्ज़ों का चयन काबिलेतारीफ है !
आपने जो ब्लॉग Removed की संकट से जूझने की बात कही है
उससे मैं भी दो चार हो चूका हू ! लेकिन फिर ये अपने आप लौट आता है
पता नहीं गूगल का क्या महामाया है ...
मनीष कुमार नीलू
क्या मुकम्मल गज़ल कह दी आपने
इस फिजां में रंगेहीना आ गया.
बहुत बेहतरीन गजल है! एक घंटे में तैयार की आपने, यह और भी काबिल-ए-तारीफ़ है!
बहुत-बहुत शुभकामनाएं...अल्लाह करे और हो जोर-ए-कलम ज्यादा...
अब तो आपके ब्लॉग को बराबर देखना होगा!
ब्लॉग वापसी पर बधाई!
आपका ब्लॉग कब तक और कौन गायब कर सकता है जनाब! वो एक शेर है ना-
हमको मिटा सके यह जमाने में दम नहीं
जमाना खुद हमसे है जमाने से हम नहीं...
लाजवाब...आपकी गज़ल ने निशब्द कर दिया...इतनी उत्क्रष्ट गज़ल पढ़ने के बाद कुछ भी कहना बेमानी होगा। हरेक पंक्ति अंतस को गहराई से छू गई। आभार
राजेन्द्र जी कितनी उम्दा गज़ल के साथ आपने ब्लॉग की वापसी का जश्न मनाया है एक एक शेर मानो नगीने सा चमक रहा है । शब्दों के अर्थ देने का शुक्रिया, हम जैसों के लिेये बहुत आवश्यक था । और ये गज़ल आपके उच्चकोटि के शीघ्र-कवित्व का प्रमाण है ।
@ पाऊँ माँ के छू लिए ....
बड़े प्यारे बेटे हो अपनी माँ के ....
सस्नेह शुभकामनायें !
बेहतरीन गज़ल. बेटी पर रचना दिखाई नहीं दी है.
bndhuvr aap ke upr maan srsvti ki sakshat kripa hai main kamna krta hoon yh sda bni rhe
aap ne is rchna me bhartiy privesh ko jivnt kr dikhya hai yh aap ke kavy ki vishaeshta hai
wah wah kya baat h ji
mere blog par aapka abhinandan....
or aapke sujhav ke karn hum bhi kuch likh payenge...
http://rohitasghorela.blogspot.com
राजेन्द्र जी नमस्कार, बहुत बढिया गजल इन्सान की बुलन्दी देख पहाड़ो को पसीना आ गया। मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है।
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