प्रसिद्ध शायर जनाब कुँवर
बेचैन साहब की एक गज़ल से मिसरा-ए-तरह
मेरी लेखनी के माध्यम से इस मिसरा-ए-तरह के लिए मुख़्तलिफ़ रंगो-मिज़ाज के कोई 25 से ज़्यादा अश्'आर मां सरस्वती की कृपा से बने थे । जिनमें
भक्ति भी है , नीति भी , आक्रोश भी है ! तंज़िया भी , मजाहिया
भी ! प्यार-मुहब्बत के अश्'आर भी !
कुल 18 शे'र वहां प्रस्तुत किए थे जो यहां भी
प्रस्तुत हैं ।
( प्रयोग के तौर पर मैंने एक हास्य ग़ज़ल
भी उस मुशायरे में प्रस्तुत की थी… जो आपके लिए यहां फिर कभी रखूंगा )
पेशे-ख़िदमत है ग़ज़ल
समझ वाले तो घर को स्वर्ग
से सुंदर बना लेते
मगर नादान ; मंदिर हाथ से खंडहर बना
लेते
जिन्हें दिलचस्पी होती-'आशियां ख़ुशहाल हो अपना'
वो मेहनत को धरम और फ़र्ज़ को मंतर बना लेते
भगत की भावना का मान ख़ुद भगवान रखते हैं
कहें गिरधर उसे हम पल में मुरलीधर बना लेते
कहां वो यक्ष , वो तड़पन मुहब्बत की कहां
है अब
जो इक पानी भरे बादल को नामावर बना लेते
खुले आकाश नीचे धूप में मजदूर सो जाते
बना कर ईंट को तकिया ज़मीं बिस्तर बना लेते
हवेली में बड़े कमरे बहुत हैं जश्न की ख़ातिर
कभी रोने को तहख़ाना कोई तलघर बना लेते
नहीं रहते जहां में लोग हद दर्ज़े के जाहिल अब
जो हर चलते हुए को पीर-पैग़ंबर बना लेते
कहां ईमानदारों के बने हैं घर…भरम है सब-
'ये मेहनत गांव में करते तो अपना घर बना लेते'
हुए शातिर बड़े औलादे-आदम ; रब भी हैरां है
जो मतलब से उसे अल्लाह औ ईश्वर बना लेते
ख़ुदा से क्या ग़रज़ इनको कहां भगवान से मतलब
फ़क़त तफ़्रीह को ये मस्जिदो-मंदिर बना लेते
कला के नाम पर जो हो रहा है… घिन्न आती है
नहीं क्यों बेशरम खुल कर ही चकलाघर बना लेते
गिरेंगे गर्त में कितना , करेंगे पार हद कितनी
सियासतदां करेक्टर का कोई मीटर बना लेते
समाजो-रस्मो-रिश्ते लूट लेते , मार देते हैं
समझते वक़्त पर ; बचने को हम बंकर बना लेते
कमा लेते मियां मजनूं अगर इस दौर में होते
इशक़ के गुर सिखाने के लिए दफ़तर बना लेते
मुई महंगाई ने आटे का टिन भी कर दिया आधा
'सजन कहते-अजी , चावल चना अरहर बना लेते'
अहम्मीयत का अपनी उनको कुछ भी था न अंदाज़ा
ख़ुदा उनको , कई आशिक़ कई शायर बना लेते
सुना… उनके हसीं हर राज़ से वाक़िफ़
है आईना
ख़ुदाया ! काश उसको यार या मुख़्बिर बना लेते
खनकती जब हंसी उनकी तो झरते फूल सोने के
अगर राजेन्द्र होते पास तो ज़ेवर बना लेते
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
इस बीच अपने समर्थन , प्रतिक्रिया
, सहयोग, आशीर्वाद , उत्साहवर्द्धन से मुझे धन्य करने वाले समस्त् प्रियजनों के
प्रति
हार्दिक आभार और
शुभकामनाएं
57 टिप्पणियां:
OBO पर प्राप्त प्रतिक्रियाएं 1
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satish mapatpuri
जब आगाज़ ऐसा है तो फिर अंजाम क्या होगा? ................ बहुत - बहुत बधाई राजेंद्रजी
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Rana Pratap Singh
राजेन्द्र जी आप का स्वागत है| इस वर्सेटाइल गज़ल के लिए ढेरों दाद कबूलिये| जो शेर मुझे बहुत पसंद आये वो ये हैं
समझ वाले तो घर को स्वर्ग से सुंदर बना लेते
मगर नादान ; मंदिर हाथ से खंडहर बना लेते
ख़ुदा से क्या ग़रज़ इनको कहां भगवान से मतलब
फ़क़त तफ़्रीह को ये मस्जिदो-मंदिर बना लेते
गिरेंगे गर्त में कितना , करेंगे पार हद कितनी
सियासतदां करेक्टर का कोई मीटर बना लेते
कमा लेते मियां मजनूं अगर इस दौर में होते
इशक़ के गुर सिखाने के लिए दफ़तर बना लेते
खनकती जब हंसी उनकी तो झरते फूल सोने के
अगर राजेन्द्र होते पास तो ज़ेवर बना लेते
बहुत बहुत बधाई| कल की गज़ल की भी प्रतीक्षा रहेगी|
*
Dharam
आदरणीय स्वर्णकार जी, इस मुशायरे में न केवल आपकी ग़ज़ल पढने को मिली,
बल्कि आपकी प्रतिक्रियाएं भी बहुत लुभावनी और हौसला बढ़ाने वाली हैं. हार्दिक आभार
*
Atendra Kumar Singh "Ravi"
rajendra ji aapki gazal ke aagaz ne to kamaal kar diya .....ek se badkar ek sher .....daad kubool karen.....
*
Dharam
आदरणीय स्वर्णकार जी, बहुत ही उच्चस्तरीय शुरुआत की है आपने इस ग़ज़ल से.
हरेक शेर एक सम्पूर्ण व्यथा और आपका दुनिया के प्रति क्या नजरिया है उसको बखूबी बयां कर रहा है.....
समाज, धर्म, कला, संस्कृति, दुनियादारी, वैश्वीकरण से ग्रस्त उपभोक्तावाद और न जाने क्या क्या.....
कहना न होगा की आपने बेहद उम्दा ज़मीन पकड़ कर ये सभी शेर कहे हैं जो आपकी परिष्कृत और प्रौढ़ सोच की साफ़ झलक देते हैं...
हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये.
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Tilak Raj Kapoor
वाह भाई वाह, एक से बढ़कर एक शेर और नये नये क़ाफ़िए, हज़ल का अंदाज़ हो रहा है मज़नू के शेर से!
*
Ganesh Jee "Bagi"
समझ वाले तो घर को स्वर्ग से सुंदर बना लेते
मगर नादान ; मंदिर हाथ से खंडहर बना लेते,
वाह भाई राजेन्द्र जी, बेहद खुबसूरत मतला है,
सच ही तो है कि कुशल हाथों में साधारण सा आशियाँ भी स्वर्ग सरीखा लगता है नहीं तो स्वर्ग जैसा घर भी खंडहर बनते देर नहीं लगता |
//हवेली में बड़े कमरे बहुत हैं जश्न की ख़ातिर
कभी रोने को तहख़ाना कोई तलघर बना लेते //
आहा, बहुत ही उम्दा शेर, जज्बात को आपने शब्द दे दिया है |
//कहां ईमानदारों के बने हैं घर …भरम है सब –
‘ये मेहनत गांव में करते तो अपना घर बना लेते’ //
वाह भाई वाह, बहुत ही खूबसूरती से गिरह बाँधा है आपने, बहुत खूब |
//खनकती जब हंसी उनकी तो झरते फूल सोने के
अगर राजेन्द्र होते पास तो ज़ेवर बना लेते //
शायर की कल्पना को दाद देना होगा, बेहद खुबसूरत ख्याल, बेहतरीन मकता |
बहुत बहुत बधाई स्वीकार कीजिये आदरणीय |
*
dilbag virk
बेहतरीन ग़ज़ल
OBO पर प्राप्त प्रतिक्रियाएं 2
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AVINASH S BAGDE
खनकती जब हंसी उनकी तो झरते फूल सोने के
अगर राजेन्द्र होते पास तो ज़ेवर बना लेते
राजेन्द्र स्वर्णकार...bahut umda.
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Saurabh Pandey
बहुत ही अच्छी ग़ज़ल से आयोजन की शुरुआत हुई है. राजेन्द्रजी ग़ज़ल के सभी शेर कुछ न कुछ इतिहास पढ़ते दीख रहे हैं.
सादर हार्दिक बधाई.
आपके सभी शेर मुझे बहुत पसंद आये हैं. सो अभिभूत सा आपको अपनी प्रतिक्रिया में लिखता चला गया.
विशेषकर, इस शेर पर बार-बार फुरकन हो रही है -
कमा लेते मियां मजनूं अगर इस दौर में होते
इशक़ के गुर सिखाने के लिए दफ़तर बना लेते .......... :-))))))))))))))))))))))))))))))
फिर.. फिर ... फिर भाईजी बधाइयाँ......
*
Mumtaz Aziz Naza
bahot sundar
*
arun kumar nigam
खुले आकाश नीचे धूप में मजदूर सो जाते
बना कर ईंट को तकिया ज़मीं बिस्तर बना लेते
बहुत खूब, राजेंद्र जी
*
आशीष यादव
waah, ek se badhkar ek sher. bahut sundar ghazal.
*
Sanjay Mishra 'Habib'
हुए शातिर बड़े औलादे-आदम ; रब भी हैरां है
जो मतलब से उसे अल्लाह औ’ ईश्वर बना लेते
आदरनीय राजेन्द्र भईया तमाम अशार बेशकीमती हैं....
खुबसूरत आगाज़ के लिए सादर बधाई स्वीकारें....
*
योगराज प्रभाकर
आदरणीय राजेंद्र स्वर्णकार भाई साहिब, नगीने जड़ दिए आप ने तो एक एक शे'र में !
इस खूबसूरत आगाज़ के लिए आपको दिली बधाई !
काम से फ्री होते ही ग़ज़ल पर खुल कर बात करूंगा ! सादर !
*
sanjiv verma 'salil'
करूँ तारीफ रचना की, कि रचनाकार की दिल से.
यही है बेहतर हम खुद को ताली-स्वर बना लेते..
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
*
वीनस केशरी
खनकती जब हंसी उनकी तो झरते फूल सोने के
अगर राजेन्द्र होते पास तो ज़ेवर बना लेते
क्या कहने हैं साहब,
हर शेर लाजवाब कर गया
मक्ता खास पसंद आया आया
*
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
विविध रंगों के अश’आर से सजी इस शानदार ग़ज़ल से शुरुआत करने के लिए दिली दाद कुबूल कीजिए।
*
Ambarish Srivastava
पिरोकर मोतियों को यह जहां सुन्दर बना लेते,
दमक अशआर की दमके, यही जेवर बना लेते.
आदरणीय राजेंद्र जी! अठारह आभूषणों से युक्त आपकी यह ग़ज़ल अपने आप में बहुत ही खूबसरत है !
इस निमित्त हार्दिक बधाई स्वीकार करें मित्र ! जय ओ बी ओ !
*
Dr.Brijesh Kumar Tripathi
in behatreen aashaaron ke liye hamaari dili mubarakbad qubool karen.....
net ki pahunch se door hoon isliye swayam bhag nahi le paa raha hoon.
OBO पर प्राप्त प्रतिक्रियाएं 3
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योगराज प्रभाकर
समझ वाले तो घर को स्वर्ग से सुंदर बना लेते
मगर नादान ; मंदिर हाथ से खंडहर बना लेते
बहुत ही उम्दा मतला - सुन्दर सन्देश वाह !
//जिन्हें दिलचस्पी होती –‘आशियां ख़ुशहाल हो अपना’
वो मेहनत को धरम और फ़र्ज़ को मंतर बना लेते//
बहुत सही फरमाया साहिब !
//भगत की भावना का मान ख़ुद भगवान रखते हैं
कहें गिरधर उसे हम पल में मुरलीधर बना लेते//
वाह वाह वाह, क्या पाकीज़ा सोच है - बहुत खूब !
//कहां वो यक्ष , वो तड़पन मुहब्बत की कहां है अब
जो इक पानी भरे बादल को नामावर बना लेते//
अय हय हय हय ! क्या खूबसूरती से महाकवि कालिदास के शाहकार की आत्मा को दो मिसरों में संजो दिया है !
आफरीन, आफरीन आफीन ! आपको औए आपकी कलाम को कोटिश: नमन !
//खुले आकाश नीचे धूप में मजदूर सो जाते
बना कर ईंट को तकिया ज़मीं बिस्तर बना लेते//
बहुत सुन्दर वर्णन !
//हवेली में बड़े कमरे बहुत हैं जश्न की ख़ातिर
कभी रोने को तहख़ाना कोई तलघर बना लेते //
ये ख़याल भी गज़ब है प्रभु - जै हो आपकी !
//नहीं रहते जहां में लोग हद दर्ज़े के जाहिल अब
जो हर चलते हुए को पीर-पैग़ंबर बना लेते//
आहा हा हा हा हा !!! क्या कहने हैं, सत्य फ़रमाया सर आपने !
लोगबाग अब जागृत हो रहे हैं ओर बड़े बड़े मठाधीषों को अपनी गद्दियाँ खतरे में नज़र आने लगी हैं !
कहां ईमानदारों के बने हैं घर …भरम है सब –
‘ये मेहनत गांव में करते तो अपना घर बना लेते’
आदरणीय भाई जी, इस शेअर ने ज्यादा मुतास्सिर नहीं किया,
दोनों मिसरे हालाकि अपने आप में स्वतंत्र होकर अपनी बात कहने में कामयाब हुए हैं,
मगर दोनों मिसरों में सामंजस्य नहीं बैठ रहा ! थोड़ी सी नज़र-ए-सानी दरकार है !
हुए शातिर बड़े औलादे-आदम ; रब भी हैरां है
जो मतलब से उसे अल्लाह औ’ ईश्वर बना लेते
वाह वाह वाह - बहुत खूब !
//ख़ुदा से क्या ग़रज़ इनको कहां भगवान से मतलब
फ़क़त तफ़्रीह को ये मस्जिदो-मंदिर बना लेते//
दुरुस्त फरमा रहे हैं, आज कल तो "पिकनिक" ओर "आऊटिंग" के लिए हरिद्वार ऋषिकेश जाने का रिवाज़ हो गया है !
यही नहीं ये पवित्र स्थल आजकल राजनैतिक अखाड़ों की तरह भी प्रयोग होने लगे हैं !
//कला के नाम पर जो हो रहा है … घिन्न आती है
नहीं क्यों बेशरम खुल कर ही चकलाघर बना लेते//
भाई जी, सीने में हाथ डाल कर दिल भींच लेने वाला शेअर है ये !
इतनी कडवी बात कह जाना एक फनकार के लिए कितना मुश्किल रहा होगा, उसकी कल्पना मैं कर सकता हूँ !
//गिरेंगे गर्त में कितना , करेंगे पार हद कितनी
सियासतदां करेक्टर का कोई मीटर बना लेते //
सही फ़रमाया, कोई तो हद मुक़र्रर होनी ही चाहिए ! ))))
//समाजो-रस्मो-रिश्ते लूट लेते , मार देते हैं
समझते वक़्त पर ; बचने को हम बंकर बना लेते//
बहुत खूब !
//कमा लेते मियां मजनूं अगर इस दौर में होते
इशक़ के गुर सिखाने के लिए दफ़तर बना लेते //
हा हा हा - अच्छा मिज़हिया पुट दिया है !
//मुई महंगाई ने आटे का टिन भी कर दिया आधा
सजन कहते – ‘अजी , चावल चना अरहर बना लेते’ ///
यानि की महंगाई डायन खाय जात है ? :))))))))
अहम्मीयत का अपनी उनको कुछ भी था न अंदाज़ा
ख़ुदा उनको , कई आशिक़ कई शायर बना लेते
प्रभु जी - माज़रत चाहूँगा, मगर बात कुछ साफ़ नहीं हो पा रही है इस शेअर में !
//सुना… उनके हसीं हर राज़ से वाक़िफ़ है आईना
ख़ुदाया ! काश उसको यार या मुख़्बिर बना लेते//
ओए होए होए होए ! जवाब नहीं साहिब - वाह वाह वाह !
//खनकती जब हंसी उनकी तो झरते फूल सोने के
अगर राजेन्द्र होते पास तो ज़ेवर बना लेते //
बेहतरीन मकता ! हंसी के फूल, वो भी सोने के, ओर उनसे फिर जेवर बनाने का ख्याल - कमाल कमाल कमाल !
इस सुन्दर रचना पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय राजेन्द्र स्वर्णकार जी !
OBO पर प्राप्त योगराज जी की प्रतिक्रिया पर मेरी प्रतिक्रिया 4
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# Rajendra Swarnkar
हे भगवान ! इतनी मेहनत !!
भाईजी , जितना भी आभार व्यक्त करूं … कम होगा ।
# आप गिरह के शे'र से सहमत नहीं हो पाए … पुनः देखूंगा , और अधिक संप्रेषणीयता का प्रयास करूंगा
( वैसे मैं यह कहना चाह रहा था कि आम आदमी के लिए ऐसा कठिन दौर आ गया है ,
महंगाई इतनी मार रही है कि ईमानदार आदमी के लिए तो ज़मीन खरीदना , अपना घर बनाना बड़ा मुश्किल/नामुमकिन-सा हो गया है ।
भले ही गांव में ही क्यों न हो क्योंकि गांव में भी महंगाई और भ्रष्ट दलाल सर पर हैं ।
इसलिए यह भरम/दिवास्वप्न ही है कि अगर गांव में मेहनत करते तो अपना घर बना लेते )
@ थोड़ी सी नज़र-ए-सानी नहीं भाईजान , पूरी कोशिश करूंगा …
#
अहम्मीयत का अपनी उनको कुछ भी था न अंदाज़ा
ख़ुदा उनको , कई आशिक़ कई शायर बना लेते
@ बात कुछ साफ़ नहीं हो पा रही है इस शेअर में !
इस शे'र में कहना यह चाहा है कि
हुस्ने-जां को पता ही नहीं था कि आशिक़ों-शायरों के बीच उनके क्या भाव हैं ,
जो बस चलता तो उन्हें ख़ुदा बनाने को तैयार बैठे थे …
आपका काम इतना बढ़ा हुआ देख कर कई बार तो अपराध-बोध-सा हो जाता है …
अगली बार से मुशायरे के लिए एक ही ग़ज़ल भेजने की सोच रहा हूं … आगे ऊपरवाला जाने :)
आभार ! शुक्रिया ! धन्यवाद ! कुछ भी नहीं कहूंगा … क्योंकि आपके दिए हुए हज़ार के नोट के बदले में अठन्नी - रुपये के सिक्का क्या महत्व है ?
*
Sunder ghazal sunder sandesh deti hui.
सुन्दर रचना का आनन्द पढ़ने में आता है। आभार..
खूब सुंदर गजल पढ़ने में आनंद आ गया...
मेरी नई पोस्ट में आपका इंतजार है
कोमल भावो की बेहतरीन अभिवयक्ति.....
'अगर राजेन्द्र होते पास तो ज़ेवर बना लेते...
वाह! वाह!वाह! क्या बात है...बहुत ख़ूब बधाई
बेहतरीन बहुयामी ग़ज़ल के लिए बधाई । लगता है जैसे सारा संसार पिरो दिया है ग़ज़ल में ।
२५ में से किसी एक शेर की तरफ करना नाइंसाफी होगी। सब के सब अद्भुत !
लेकिन आखिरी शेर को अतिरिक्त पसंद करने से नहीं रोक सकते खुद को ।
और भैया यह स्केच किस चित्रकार ने गढ़ा है , अति सुन्दर ।
और जो लिंक खुल नहीं रहा , यह रहा --
http://tdaral.blogspot.com/2011/12/blog-post.html
एक बार ज़रूर देखें , तबियत और भी खुश हो जाएगी ।
आपकी लेखनी से गुजरना अपने आप में एक अनुभव है!
शुभकामनाएं!
सादर!
"खनकती जब हंसी उनकी तो झरते फूल सोने के
अगर राजेन्द्र होते पास तो ज़ेवर बना लेते".
"लोगों की नादानियों की याद दिलाते एक समझदारी भली सलाह और उसके सुंदर परिणाम" एक बहुत खूबसूरत विषय लेकर सुंदर रचना प्रस्तुत की है राजेंद्र जी. आपके लेखन में जादू है और समाज के प्रति जागरूकता भी.
बधाई.
खूबसूरत प्रस्तुति ||
बहुत बहुत बधाई ||
terahsatrah.blogspot.com
आदरणीय राजेंद्र जी..
बेहतरीन गज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें। गज़ल के शेर सभी हद उम्दा हैं।
राजेन्द्र जी बधाई स्वीकारें !
हर एक के लिए ...हर तरह के ,हर मसले पर सच्चे और खरे अश'आर |
खुश रहें !
शुभकामनायें!
बधाई.
आनंद आ गया आदरणीय राजेन्द्र भईया....
आपके अपडेट मेरे डेशबोर्ड में नहीं आ रहे, जाने क्या बात है....
सादर.
Bahut khoob... Ek Ek sher lajwaab hai... Badhai kabool karen
बहूत बहूत सुंदर ...
अच्छी बातो से अवगत करती रचना...
सुंदर प्रस्तुती ...
कहाँ वो यक्ष वो तड़पन मुहब्बत की कहाँ है अब
जो इक पानी भरे बादल को नामवर बना लेते
और
हवेली में बड़े कमरे ...कभी रोने को तहखाना कोई तलघर बना लेते
वाह राजेंदर जी...आप तो भावों के स्वर्णकार हैं
..क्या माला बनाते है भावों की...
आपको बहुत बधाई ..
आपकी कलम में जादू है ...
May God bless you
Prem Lata
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति हमेशा की तरह ..!
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आपका दिल से शुक्रिया..!
आगे भी कृपा बनाये रखियेगा ...!
आभार !
राजेन्द्र जी ...
कमाल के शेर हैं सभी ... जीवन के हर रंग को आपने इस बहर में उतार दिया ... और ये बहर भी तो कमाल की है ... किसी एक शेर को लिख के पूरी गज़ल का आनद खत्म नहीं करना चाहता .. आपकी हास्य गज़ल का इन्तेज़ार रहेगा ....
हवेली मे बड़े कमरे बहुत है जश्न की खातिर
कभी रोने को तहखाना कोई तलघर बना लेते
*******************************
हरेक पंक्ती को आधार बना कर कई रचनाएँ रची जा सकती है............... अपनी संतति को गर्व से बता सकता हूँ की मैं राजेंद्र स्वर्णकार के युग का आदमीं हूँ.
गिरेंगे गर्त में कितना , करेंगे पार हद कितनी
सियासतदां करेक्टर का कोई मीटर बना लेते
कमा लेते मियां मजनूं अगर इस दौर में होते
इशक़ के गुर सिखाने के लिए दफ़तर बना लेते
वाह ! वाह!! यूँ तो हर शेर पर जितनी दाद दी जाये कम है.. आभार!
कमा लेते मियां मजनूं अगर इस दौर में होते
इशक़ के गुर सिखाने के लिए दफ़तर बना लेते
खनकती जब हंसी उनकी तो झरते फूल सोने के
अगर राजेन्द्र होते पास तो ज़ेवर बना लेते
बहुत खूब! राजेन्द्र जी,
वैसे तो पूरी ग़ज़ल शानदार है, लेकिन मकता बहुत ही पसंद आया
आपका पोस्ट अच्छा लगा .मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
kya baat hai...Rajendra ji...mazaa aa gaya padhkar...khas taur par "Maznu ka daftar" wali baat bahut mazedaar lagi...sabhi sher kabile daad hain..bahut bahut badhaai.
हर शेर पर तालियाँ बजाई हमने...
वाकई,क्या ग़ज़ल रची है आपने....
बेहतरीन !!!!
राजेंद्र जी नमस्ते, बेहतरीन रचना है | मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है|
जनाब स्वरंकार जी
नमस्कार
ग़ज़ल ऐसी है कि उसे
पढ़ना , बस पढ़ना , और पढ़ना ही अच्छा लग रहा है
कोई टिप्पणी दूं,,इसका अभी ख़याल भी नहीं आ रहा
मन्त्र मुग्ध हूँ .....
जिन्हें दिलचस्पी होती-'आशियां ख़ुशहाल हो अपना'
वो मेहनत को धरम और फ़र्ज़ को मंतर बना लेते
इंसान को सबक-सीख से जोड़ते हुए बहुत गहरी बात कही है
और
कहाँ वो यक्ष, वो तड़पन मुहोब्बत की कहाँ है अब
जो इक पानी भरे बादल को नामावर बना लेते
हमारे समृद्ध इतिहास का महत्त्वपूर्ण अध्याय सिमटा है इस शेर में
इसके बाद
कभी रोने को तहखाना,कोई तलघर बना लेते ...
चाहते हुए भी कुछ न कह पाऊंगा यहाँ !
और क़ाफ़ियों में "मीटर" का इस्तेमाल यहाँ तो फब रहा है !!
आपकी किसी भी रचना की तारीफ़ करना बहुत मुश्किल काम रहता है
बस.....
साधूवाद स्वीकारें .
rajendra ji aapki gazal ka ek ek sher apni khoobsurati ke sath hi bahut achchhi seekh bhi samete hue hai...shubhkamnayen..
namaskar rajendra ji
har baar ki tarah manmohak , anupam , uttam , hraday ko bhigo gayi aapki post .
bahut -bahut badhai
हवेली में बड़े कमरे बहुत हैं जश्न कि खातिर
कभी रोने को तहखाना कोई तलघर बना लेते ...
दादा प्रणाम ..एक पूरा युग हो आप ..मैं कभी इस योग्य नहीं पाउँगा खुद को कि आपके अशआर पर टिप्पड़ी कर सकूं !
बहुत सुन्दर शेर हैं राजेन्द्र जी. बधाई.
सादर
मदन मोहन 'अरविन्द'
राजेंद्रजी.....
आपकी प्रशंसा के लिए शब्दों की कमी महसूस करने लगी हूँ अब....! जो आप कह जाते हैं इतनी सहजता से अपनी कविताओं और गजलों के माध्यम से....शायद मेरी ही कुछ कमी है जो मैं ऐसा महसूस करती हूँ....! हर शेर अपने आप में पूरा है.....अलग-अलग भाव लिए है अपने भाव की पूर्णता के साथ....!!
शुक्रिया कहूँ या कहूँ इरशाद या मुक़र्रर ........!
सब आपको ही जाता है...!!
bahut badiya sher padhne ko mile..aabhar!
लाजवाब ! किस शेर को कहें कि ज़्यादा अच्छा है, यहाँ तो हरेक शेर अपने आप में एक गहन अहसास और गज़ल समाये हुये है। अद्भुत प्रस्तुति .... बार बार पढ़ने को दिल करता है.... आभार
अच्छी गजल है। बधाई ।
कुँवर बेचैन
Beautiful creation !...Loving it !
rajendra ji apka lekhen bhi kamal ka hai meri bahut2 shubh kamnayen sweekar kare.....mitra...
Kavi Brajendra Soni
कहाँ वो यक्ष, वो तड़पन मोहब्बत की कहाँ है अब
जो इक पानी भरे बादल को नामवर बना लेते
वाह भाई जी इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए जिसका हर शेर किसी चमकते नगीने से कम नहीं, ढेरों दाद कबूल करें. मैं इन दिनों जयपुर आया हुआ हूँ. आप को तो मालूम ही है हाल ही में गुडिया सी पोती इश्वर ने घर में भेजी है पहले अकेली मिष्टी थी अब इष्टी भी आ गयी तो यूँ समझो पहले पाँचों उँगलियाँ घी में थीं अब उनके साथ सर भी कड़ाही में आ गया है...और क्या चाहिए? इसी वजह से सर उठाने और नैट खोलने की फुर्सत ही नहीं मिलती...समय यूँ भाग रहा है के बस क्या कहें? बाकी बस आनद ही आनंद है...
नीरज
राजेन्द्र जी ...
बहुत सुंदर गजल पढकर आनंद आगया
बार२ पढ़ने को दिल करता है.........
मेरे नए पोस्ट में आइये ........और पढ़िए..
आज चली कुछ ऐसी बातें, बातों पर हो जाएँ
किसके दम पर इतनी बातें, इस पर भी हो जायें बातें
दिल की धड़कन से हैं बातें, सासों पर निर्भर हैं बातें
जब तक करती हैं ये बातें, तब तक है अपनी भी बातें
अभी बहुत अनकही हैं बातें, सोच समझ कर करना बातें
BHAI , AAPKEE GAZAL PADH KAR BAHUT
ACHCHHAA LAGTAA HAI . IS GAZAL NE
TO AANANDIT KAR DIYAA HAI . YUN HEE
LIKHTE RAHIYE AUR MAN KO LUBHAATE
RAHIYE .SHUBH KAMNAAYEN .
Bhai Rajendra ji,
Achchhi ghazal hai badhai. Poori ghazal ka nichod makte men rakh diya hai use kuchh sansodan ke sath neeche likh rahaa hoon-
khanakati jab hansi unki to jharate fool sone ke
agar 'swarnkaar' hote to naye jewar bana lete
punah badhai.
प्रिय भाई,
इतने विविधता पूर्ण और चमत्कारी शेरों के लिए हार्दिक बधाई!
Rajendra Ji.....
After reading all the sher, I'm speechless! I like this post very much! Really very nice post!
भाई राजेंद्र जी ,
बनाकर ईंट को तकिया ज़मी बिस्तर बना लेते.....
बहुत अच्छे शेर हैं ,
बधाई
ओमप्रकाश यती
RAJENDRA BHAI SAHAB...
APNE SHABD-SAADHNA KI HAI.
ACHHI AUR MUQAMMAL RACHNA HAI.
HAR SHER JABBAR HAI...KYA KHOOB KAHA ...
कहां वो यक्ष , वो तड़पन मुहब्बत की कहां है अब
जो इक पानी भरे बादल को नामावर बना लेते
ACHHA LAGA.
FURSAT SE APKE BLOG KI YATRA KARUNGA...APNE YAAD KIYA BHAI SAHAB, ABHAARI HUN.
BAHUT ACHHHA LAGA
Kunwar Preetam
भाई साहब,
प्रणाम करता हूँ आपको और ग़ज़ल कहने की आपकी समझ को
सारे शेर तो नहीं,किन्तु कुछ शेर मझे बहुत पसंद आए । जैसे ईँट का तकिया...चरित्र का मीटर...तफ़रीह के लिए मंदिर मस्जिद...और तलघर बना लेते...
वाकई आपने अछूते विषयोँ को छुआ है ।
माता सरस्वती आप पर सदा प्रसन्न रहे...इस दुआ के साथ ...
Sandeep Karosiya
ओपेन बुक्स ऑनलाइन (ओबीओ) के मंच पर इन अश’आर पर खुल कर बातें हो चुकी हैं.
आपको इस मंच के माध्यम से पुनः हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ, राजेन्द्र भाईजी.
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
राजेन्द्र भाई आज मुझे भी आप की वो 'ऊँट' वाली कहावत याद आ रही है। विद्वानों ने कुछ बाकी छोड़ा ही नहीं है। भाई मैं तो प्रेम और आनंद के सागर में बस गोते लगाता जा रहा हूँ - क्या बात है क्या बात है। आप शब्दों के कुशल चितेरे हैं, और बात कहने में तो आप का सानी नहीं। बहुत मज़ा आया सर जी, ऐसे नगीने बाँटते रहियेगा अपने दोस्तों के साथ।
भाई राजेन्द्र जी ईश भक्ति से ओत -प्रोत उम्दा गज़ल बधाई और शुभकामनाएं |
प्रिय राजेन्द्र जी बहुत सुन्दर गजल ..मंहगाई सहित सब विषय ...मन को छू गयी ये झांकी ......
प्रशंसनीय
भ्रमर ५
प्रिय भाई,
गिरिधर को मुरलीधर बना देने वाली भाव चेतना आपकी ग़ज़ल को एक विशिष्ट सांस्कृतिक श्री देती है...
साधुवाद!
Shiv Om Ambar
वाह वाह! क्या बात है. हर कद-काठी के अशआर हैं यहाँ पर, हर मिजाज़ के भी:)
कुछ बेहद मकबूल! कुछ मजेदार!
अपना एक शेर याद आया, आपके गिरधर-मुरलीधर वाले शेर को समर्पित करती हूँ :
"गोपियाँ कब मान पाईं, कृष्ण मथुराधीश हैं
श्याम वृन्दावन-बिहारी है अभी तक गाँव में"
वाह वाह ! आपने बहुत ही सुन्दर गजल लिखी है . इसके लिए आपका दिल से धन्यवाद कहना चाहूँगा
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