आज प्रस्तुत हैं दो ग़ज़लें
ग़ज़ल
ख़्वाब क्या नींद तो मयस्सर हो
फ़िर… ज़मीं , टाट , नर्म बिस्तर हो
सब्र दरिया से क्या मिलेगा उसे
जिसकी ज़द में अगर समंदर हो
जो तुझे दूं , मुझे वही तू दे
मुआमला आपसी बराबर हो
ना हो दीनी फ़क़त , हो इंसानी
एक ऐसा भी तो पयंबर हो
कुछ यक़ीं भी कभी तो लाज़िम है
हर घड़ी पास कैसे संगज़र हो
ज़िंदगी मार्च ना जुलाई हो
कुछ नवंबर हो , कुछ दिसंबर हो
आईना देख कर मुझे बोले
तू न हो यां तेरा सुख़नवर हो
राहते - जानो - दिल का सामां है
शाइरी में भला क्यों नश्तर हो
सच किसी को कहीं गवारा नहीं
होंट सी ' लें राजेन्द्र बेहतर हो
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
*********************************राजस्थानी ग़ज़ल
नीं गाज्यो नीं बरस्यो मेह
सौ जग था' बिन तरस्यो मेह
नित नित 'डीकै गोरलड़्यां
हुयग्यो छैलभंवर - स्यो मेह
हुयग्यो छैलभंवर - स्यो मेह
लाड लडाईजै घर - घर
मोभी लाडकंवर - स्यो मेह
मोभी लाडकंवर - स्यो मेह
आभै सूं उ त र् यो समदर
खेतां फूल्यो - सरस्यो मेह
खेतां फूल्यो - सरस्यो मेह
राजिंद रा नैणा परस्यो
झर झर ' बरस्यो हरस्यो मेह
राजस्थानी ग़ज़ल
भावानुवाद
न तो बादल ही गरजे , न बरसात ही हुई ।
मेह ! ( वर्षा ! ) सारा संसार तुम बिन तरस गया है ।
हमेशा हमेशा नवयौवनाएं तुम्हारी प्रतीक्षा करती हैं ।
झर झर ' बरस्यो हरस्यो मेह
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
राजस्थानी ग़ज़ल
भावानुवाद
न तो बादल ही गरजे , न बरसात ही हुई ।
मेह ! ( वर्षा ! ) सारा संसार तुम बिन तरस गया है ।
हमेशा हमेशा नवयौवनाएं तुम्हारी प्रतीक्षा करती हैं ।
मेह ! तू तो उनके सजन - प्रियतम की तरह हो गया ।
तुम्हारे लाड़ तो घर घर लडाए जा रहे हैं ,
तुम्हारे लाड़ तो घर घर लडाए जा रहे हैं ,
मेह ! तू तो ज्येष्ठ लाडले बेटे की तरह हो गया है ।
आसमान से समुद्र उतरा ,
आसमान से समुद्र उतरा ,
और मेघ खेतों में पुष्पित पल्लवित हो' सरस उठा ।
राजेन्द्र के नैनों का स्पर्श करके
राजेन्द्र के नैनों का स्पर्श करके
मेह झर झर बरस गया , और हर्षित हो उठा ।
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पिछली पोस्ट्स पर
आप द्वारा मिले स्नेह प्यार और दुआओं के लिए
हृदय से आभारी हूं ।
याद रहे , आपके दम से ही हम हैं ।
गर्मी से बचाव रखें
यहां आते रहना जरूरी नहीं , बहुत बहुत ज़्यादा ज़रूरी है …
30 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर ग़ज़लें ।
जिंदगी कुछ नवम्बर, कुछ दिसंबर हो । वाह ।
अब तो बारिस ही बारिस है चारों ओर ।
dono gazalon se lutf haasil huaa
hai.mubaarak
स्वर्णकार जी अच्छी ग़ज़ल लिखने का आभार......देर से आने के लिए मुआफी चाहूँगा. मगर अब आपके ब्लॉग पर नियमित होने की कोशिश करूंगा....राजस्थानी ग़ज़ल भाषाई बाधा के कारण पूरी तरह समझ नहीं सका मगर भाव तो समझ में आ ही गए.
कहते हैं घर के भाग्य ड्योडी से ही नज़र आ जाते हैं सो मतले से ही नज़र नही हटती लाजवाब
सब्र का दरिया----
ख्वाब क्या नींद----
ज़िन्दगी मार्च -----
क्या अशार घडे हैं बहुत बहुत बधाई इस लाजवाब गज़ल के लिये।
अमिताभ बच्चन सी खूबसूरत छवि...और फिर बेहतरीन मतले से आगाज़ की हुई ग़ज़ल जिसका हर शेर कभी अपनी नयी कहन और कभी अनूठे काफिये से जगमग कर रहा है पढ़ देख कर जो आनंद आया है उसे शब्दों में बयां करना असंभव है...
आपके इन अशआरों पर :-
ख्वाब क्या नींद तो मय्यसर हो
फिर..ज़मीं टाट नर्म बिस्तर हो
ना हो दिनी. फकत हो इंसानी
एक ऐसा भी तो पयम्बर हो
ज़िन्दगी मार्च ना जुलाई हो
कुछ नवम्बर हो कुछ दिसंबर हो
अपनी जगह से खड़े हो कर तालियाँ बजा रहा हूँ...वाह वा...राजेंद्र जी वाह...
राजस्थानी ग़ज़ल की खुशबू का तो क्या कहना...लाजवाब...
नीरज
राजिंद्र रा नैणा परस्यो
झर झर'बरस्यो हरस्यो मेह
बादळां री जद कुंडी खुली
खूब दड़ादड़ बरस्यो मेह ।
म्हे बी दो लैन जोड़ दीनी
राम राम
वाह !!!!
सुंदर गज़लें....
लाजवाब.....
fiir dhamakaa kar diyaa...? behatar ghazalen kahate ho bhai, hindibhashee shayaron mey avval nambar ke shayaron me rajendra swarnakar kaa naam liyaa ja sakataa hai. badhai...dil se.
बहुत सुन्दर सुन्दर गज़लें पढ़वाईं..इन्हें सुनाईये भी तो और आनन्द आये.
Bahut hi lajawaab gazlen hain ... naye taaza sher hain aapki kalam se nikle .. aur raajsthaani gazlon ka bhi jawaab nahi ... subhaan alla ..
सुन्दर पंक्तियां. धन्यवाद.
धीरे-धीरे दिल में गहरे उतर जाने वाले भाव
एक भरपूर ग़ज़ल .... वाह
और ये शेर
"जो तुझे दूं , मुझे वही तू दे
मुआमला आपसी बराबर हो"
ग़ज़ल की जान ....
इसीस की वजह से ही ग़ज़ल हुई है ,,, शायद !!
मुबारकबाद .
Achchhi ghazalon ke liye badhai sweekaren Rajendra Bhai
zindagi march na july ho
kuchh november ho kuchh disamber ho
bahut sunder bahut khoob.
"सच किसी को गवारा नहीं
होंठ सीं लें राजेंद्र बेहतर हो"
खूब कहा
ना हो दीनी फ़क़त , हो इंसानी
एक ऐसा भी तो पयंबर हो
ज़िंदगी मार्च ना जुलाई हो
कुछ नवंबर हो , कुछ दिसंबर हो
गज़ले बहुत ही खूब सूरत है, ये दो शेर मुझे बहुत अच्छे लगे.
मुबारकबाद क़ुबूल किजिये.
ख्वाब क्या नींद तो मयस्सर हो
फिर...जमी ,टाट,नर्म बिस्तर हो
वाह.....बहुत खूब ......
सब्र दरिया से क्या मिलेगा उसे
जिसकी ज़द में अगर समंदर हो
कुछ शक सा हो रहा है इस शे'र पे .......
जो तुझे दूँ , मुझे वही तू दे
मुआमला आपसी बराबर हो ...
तो मुआमला बदले का है ....?
बदले में उम्मीद रखनी अच्छी बात नहीं .....रे जोगी.....
न हो दीनी फकत,हो इंसानी
एक ऐसा भी तो पयंबर हो
होना तो चाहिए ......
ज़िन्दगी मार्च न जुलाई हो
कुछ नवम्बर हो कुछ दिसंबर हो
वाह....वाह......लाजवाब .....इस शे'र पे दिली दाद कबूल करें ......
सच किसी को गवारा नहीं
होंट सी ले राजेन्द्र बेहतर हो
जी बिलकुल .....
कुछ कहने से तूफ़ान उठा लेती है दुनिया
अपनी तो ये आदत है के हम कुछ नहीं कहते ......
शुक्रिया फिर एक लाजवाब ग़ज़ल के लिए ........!!
आवाज़ का सरुर इस बार न मिला .....
और ये तस्वीर ....?
देवदास सी ......माशाल्लाह .....क्या अंदाज़ है ......!!
बहुत सुंदर ग़ज़ल
गज़ले बहुत ही खूब सूरत है
matla ghazab ka laga mujhe... :)
doosre sher ne bhi sitam dha diya diya...
chauthe ne jo baat kahi .. badi unchi hai ..
december wala sher meri samjh se pare nikal gaya... :(
over all ghazal umda lagi ... :)
दोनों ही ग़ज़लें बहुत सुन्दर हैं.
'ज़िन्दगी मार्च न जुलाई हो ..'वाला शेर हटकर है मगर भावपूर्ण है .अपरोक्ष रूप से आप अर्थ कह गए हैं.
बहुत बढ़िया.
आखिरी शेर तो सच्चाई है ..आज के समय में सच कौन सुन पाता है?
-आप शायर के साथ साथ चित्रकार भी हैं ये आज मालूम हुआ.
-[व्यक्तिगत कारणों से ब्लॉग्गिंग में आज कल बहुत अधिक अनियमितता है,इसी कारण पोस्ट पर देर से आयी हूँ. ]
राजेन्द्र जी, आप को हिन्दी युग्म पर, सृजनगाथा पर और कई अन्य जगहों पर देखा है इसलिये आप अपरिचित नहीं लगते। आप की सौन्दर्य बुद्धि उत्कृष्ट है. सुन्दर ब्लाग पर सुन्दर मनोहरी प्रस्तुति. अच्छा लगा यहां आकर. दो पंक्तियां आप को-----
होंट सीने से हो सकेगा क्या
हाथ में जब कि उनके खंजर हो
गुड...
आप को भी ये पेंटिंग की बीमारी है क्या...?
जो तुझे दूं, वही मुझे तू दे..
मुआमला आपसी बराबर हो...
ग़ज़ल कि जान है ये शे'र..
राहते-जानो -दिल का सामां है....
वाह.....
भाई साहब,
नमस्कार !
आपकी दोनों गज़लें पढ़ी . बेहद शानदार !!!!!!!!!
"जो तुझे दूं, वही मुझे तू दे..
मुआमला आपसी बराबर हो.' यह तो बेहद शानदार लिखा है. अच्छे लेखन के लिए बधाई!
आपका
जीतेन्द्र कुमार सोनी
www.jksoniprayas.blogspot.com
अफसोस कि आज तक आपके इस नायाब खजाने से वंचित रहा.
जो तुझे दूं, वही मुझे तू दे..
मुआमला आपसी बराबर हो...
ना हो दिनी. फकत हो इंसानी
एक ऐसा भी तो पयम्बर हो
vaah vaah
ज़िन्दगी मार्च ना जुलाई हो
कुछ नवम्बर हो कुछ दिसंबर हो
बेहद खूबसूरत शेर हुआ है इस नयेपन के क्या कहने.
पूरी ग़ज़ल लाजवाब है.
Pahli baar aapke blog par aayi.Jitna sundar blog hai utni hi sundar rachnayen bhi.shubkmnayen.
bahut khoob... ek ek sher lajawaab
kuchh masroofiyat thi kuchh net ki samsyaa ..ab niyamit padhungi
राजेंद्र जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल लिखते है आप...पहली ग़ज़ल तो बहुत ही अच्छी लगी.....अब चूँकि राजस्थानी भाषा समझ में नही आती तो दूसरे ग़ज़ल को भाषानुवाद से ही समझने का प्रयास किया ये भी बढ़िया लगी....धन्यवाद राजेंद्र जी
behad khoobsoorat blog badhai bhai rajendraji
स्वर्णकार जी नमस्कार !
बहुत सुंदर ग़ज़लें
बहुत खूब
धन्यवाद.
गजब का मतला राजेन्द्र जी और चंद लाजवाब काफ़िये...वाह! ये शेर खूब भाया
"जो तुझे दूं, मुझे वही तू दे/मुआमला आपसी बराबर हो"
लेकिन हासिले-ग़ज़ल शेर तो "सब्र दरिया से क्या मिलेगा उसे" वाला है। बहुत खूब...
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