एक ग़ज़ल के साथ उपस्थित हुआ हूं...प्रिय मित्रों फ़िर से बहुत अंतराल पश्चात् !
मेरे हिस्से में बेशक इक ग़लत इल्ज़ाम आया है
मगर ख़ुश हूं, कि उनके लब पे मेरा नाम आया है
मिले पत्थर मुझे उनसे... दिये थे गुल जिन्हें मैंने
चलो , कुछ तो वफ़ाओं के लिए इन्'आम आया है
बुलाता मैं रहा दिन भर जिसे ख़िड़की खुली रख कर
वही मिलने को ढलती ज़िंदगी की शाम आया है
न जाने उस गली के साथ किसकी बद्'दुआएं हैं
गया इक बार भी , हो'कर वही बदनाम आया है
हवा का भी कोई झौंका जो सरहद पार से आए
जवां हैं मुस्तइद , करते तलब - किस काम आया है
दिया धोखा सिया को रूप धर' कल साधु का जिसने
किसे मा'लूम रावण इस दफ़ा बन राम आया है
सुनी मुरली की धुन ; सुध भूल' निकलीं गोपियां घर से
मेरा मोहन , मेरा कान्हा , मेरा घनश्याम आया है
उड़ीं ख़िलज़ी की नींदें पद्मिनी की दीद की ख़ातिर
किया दीदार जिस-जिसने वही दिल थाम' आया है
यूं बोली मौत मेरी ज़िंदगी से - छेड़ मत इसको
तड़पती रूह को अब ही तो कुछ आराम आया है
गया राजेन्द्र दुनिया से... फ़रिश्ते यूं लगे कहने
बदलने को जहां निकला था वो नाकाम आया है
©राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
नये वर्ष में नियमित होने का प्रयास रहेगा
शुभकामनाएं
शुभकामनाएं
33 टिप्पणियां:
सुन्दर गजल...हर शे'र शानदार !!
बहुत खूब!
बहुत खूब!
लाजवाब ग़ज़ल
बेहद खूबसूरत और उम्दा अशआर ...एक अच्छी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद !!
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-12-2014 को चर्चा मंच पर क्रूरता का चरम {चर्चा - 1831 } में दिया गया है
आभार
waah bahut sundar gajal ....... bahut dino baad punah sakriy hui hoon , anand aa gaya blog par padhkar, hardik badhai
waah bahut sundar gajal ....... bahut dino baad punah sakriy hui hoon , anand aa gaya blog par padhkar, hardik badhai
सुन्दर रचना .....
बेहतरीन रचना
wah bahut sundar
wah bahut sundar
wah bahut sundar
:) अब वो रावण नहीं राम के वेश में आते हैं ....
यूँ बोली मौत मेरी ज़िंदगी से- छेड़ मत इसको ,
तड़पती रूह को अब ही तो कुछ आराम आया है
अच्छी गजल, राजेंद्र जी , बहुत दिनों के बाद आये हैं ब्लॉग पर?
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
उम्दा गजल...बधाई
वधिया
वाह..लाज़वाब..सभी अशआर बहुत उम्दा..अद्भुत ग़ज़ल
rajendra bhaee bahut barhuya. apki prastutiyan sadaiv marm sparshi hoti hain.
उम्दा ... हर शेर पर दाद मिकलती है ... वाह वाह निकलता है ... लाजवाब ग़ज़ल है राजेन्द्र जी ...
बहुत दिनों बाद आप की रचना पढ़ी और यह बड़ी ही खूबसूरत प्रस्तुति है.हर शेर जानदार है.नए वर्ष में नियमितता बनी रहे.शुभकामनाएँ.
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-12-2014) को *सूरज दादा कहाँ गए तुम* (चर्चा अंक-1841) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूबसूत गज़ल। बहुत दिनों बाद यहां आ पाई पर आनंद आ गया।
सुन्दर गजल...राजेन्द्र जी
बहुत ख़ूब.........बहुत ख़ूब..............लाजबाव
http://savanxxx.blogspot.in
ग़जल कैसी है ये बताने के लिए बंदा या तो समकक्ष हो या बेहतर हो। इस योग्यता में आपके सामने कहीं नहीं ठहरता। इसलिए मैं कहूंगा कि सर मुझे ये गज़ल बहुत पसंद आई। आपकी रचनाएं हमेशा ही मुझे बहुत पसंद आती हैं। आभार।
अच्छा ब्लाग है सुन्दर गजल बधाई
बहुत ही सुंदर गज़ल।
देर से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ पर बेहतरीन प्रस्तुति
Bahut sundar
बहुत ही सुंदर गजल
बहुत ही सुंदर गजल
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