वैशाख चल रहा है !
निराली महिमा है , अलग ही ठाठ-बाट हैं वैशाख मास के ।
और इस बार तो एक नहीं , दो-दो वैशाख हैं ।
प्रस्तुत है एक कवित्त
नए भाव-बिम्ब , पुराने छंद के साथ
**********************************************************
वैशाख ॠतु भा गई
हवा की अंगुली थामे'
खिड़की के रास्ते से ,
नीम - गंध ;
ताज़गी ही ताज़गी ले' आ गई !
सीलन सुखा' के ,
कक्ष की घुटन खा' के ,
कोने - कोने में सुगंध भर' ,
सांसों में समा गई !
क़ैद से कपास की निकाल' हमें ;
क़ुदरत …
सूरज की मर्करी जला' मनाती जश्न है ;
खट्टी - खट्टी कैरी के अचार वाली ,
इमली व गुड़ - शरबत की
वैशाख ॠतु भा गई !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
**********************************************************
इस बार ग़जल पर आपका विशेष ध्यान चाहूंगा , पेश है...
ग़ज़ल
भर गए बाज़ार नक़ली माल से
लीचियों के खोल में हैं फ़ालसे
लफ़्ज़ तो इंसानियत मा'लूम है
है मगर परहेज़ इस्तेमाल से
ना ग़ुलामी दिल से फ़िर भी जा सकी
हो गए आज़ाद बेशक़ जाल से
भूल कर सिद्धांत समझौता किया
अब हरिश्चंदर ने नटवरलाल से
खोखली चिपकी है चेहरों पर हंसी
हैं मगर अंदर बहुत बेहाल से
ज़िंदगी में ना दुआएं पा सके
अहले-दौलत भी हैं वो कंगाल से
सोचता था…ज़िंदगी क्या चीज़ है
उड़ गया फुर से परिंदा डाल से
इंक़लाब अंज़ाम दे आवाम क्या
ज़िंदगी उलझी है रोटी-दाल से
शाइरी करते अदब से दूर हैं
चल रहे राजेन्द्र टेढ़ी चाल से
- राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
**********************************************************
सानिया - शोएब की हो चुकी , बधाई है उसे !
प्रकरण की गहमागहमी के मध्य राजस्थानी में सृजित यह कुंडली
नौजवानों की तसल्ली के लिए प्रस्तुत है …
औ के कर गई बा !?
हाय कठी स्यूं उठ रयी , उठी कठी स्यूं आह !
दुशमी - घर जा ' सानिया , करली अबै निकाह !!
करली अबै निकाह , मरद भारत में नीं हा ?
टेनिस रमतां ' चाणचक , औ के कर गई बा !?
मोट्यारां रो काळजो , रैय - रैय ' कुरळाय !
सो'णी हिरणी - चिड़कली … हाथां निकळी , हाय!!
- राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
**********************************************************
पहली ही पोस्ट से
इतने गुणीजनों का आशीर्वाद , स्नेह और अपनत्त्व मिला ,
धन्य हो गया मैं ! सभी के प्रति हार्दिक आभार !
कृपया , सहयोग एवम् स्नेह बनाए रखें ।
शीघ्र ही मिलेंगे … विदा !
**********************************************************
18 टिप्पणियां:
कोने - कोने में सुगंध भर' ,
सांसों में समा गई !
क़ैद से कपास की निकाल' हमें ;
क़ुदरत …
सूरज की मर्करी जला' मनाती जश्न है ;
-यह तो बहुत ही सुखद वर्णन है वैशाख का.
--------------------------------
खोखली चिपकी है चेहरों पर हंसी
हैं मगर अंदर बहुत बेहाल से
ज़िंदगी में ना दुआएं पा सके
अहले-दौलत भी हैं वो कंगाल से
--वाह !क्या खूब!
बहुत उम्दा कही है यह ग़ज़ल.
शोएब और सान्या पर लिखी कुंडली कुछ समझ तो आ गयी --मजेदार है.
gazab likh rahe ho bhaai.. kaun kahataa hai ki pratibhaon kaaakal pad gayaa hai? aapakee ghazal ne to kamaal kar diyaa.''bhar gaye baazaar nakalee maal se'' har sher dard se upajaa gaan, bahut khoob.
teesari rachna meri zabaan me nahi thi ..to samjh se pare chali gayi ..pahli kavita aur uske bad ghazal dono hi bahut achhe lage ..
बहुत ताज़गी भरी रचनाये हैं सभी ! आपकी लेखनी में जादू है ! बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनायें !
राजेंद्र जी
आप जैसे विलक्षण प्रतिभाशाली के ब्लॉग पर आ कर हम तो सच में धन्य हो गए....आपकी नज़्म ग़ज़ल और कुंडली ने मन मोह लिया...बरबस ये पुँराना गीत होंटों पर आ गया है: "मन मोर हुआ मतवाला...कैसा जादू डाला रे कैसा जादू डाला"
आपकी ग़ज़ल का मतला जान लेवा है...ऐसा अद्भुत प्रयोग कहीं पढने देखने में नहीं आया:
भर गए बाज़ार नक़ली माल से
लीचियों के खोल में हैं फ़ालसे
वाह..वाह..वा...कमाल किया है आपने...एक और शेर:
सोचता था…ज़िंदगी क्या चीज़ है
उड़ गया फुर से परिंदा डाल से
भी बहुत अलग सा लगा ..बेहद खूबसूरत...
ब्लॉग की साज सज्जा भी आँखों को भा गयी...आप हरफन मौला कलाकार हैं ये सिद्ध करने के लिए आपको पढना और ब्लॉग देखना ही काफी है...कभी अपनी बंदिशें भी हम जैसे पाठकों तक ब्लॉग द्वारा पहुंचिए...कृपा होगी .
नीरज
पहले भी आपका कोई ब्लॉग था न ! मुझे लगता है मैंने उसे फॉलो किया था ! फिर पता नहीं कैसे वह खो गया !
गौतम भाई के ब्लॉग से पता पा कर आया हूँ ! जानता हूँ आपकी सामर्थ्य !
अदभुत रचनाशीलता ! प्रस्तुति का आभार !
बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं आप...आपकी तीनों प्रस्तुतियाँ एक से बढकर एक हैं...आप जैसे पारस का स्पर्श पाकर बस यही कह सकता हूँ..
आपसे मिलकर हमें ऐसा प्रतीत होता है क्यों
एक पारस छू गया और हृदय कुंदन हो गया.
bahut sundar rachnayen
ghazal behad achhi lagi
with regards
राजेंद्र जी आप तो फलक पे सितारों से चमक रहे हैं ....
हर विधा में पारंगत हैं आप तो .....
हवा की अंगुली थामे
खिड़की के रास्ते से
नीम-गंध .....
वाह क्या क्या कहने हैं .....
और ग़ज़ल .....
जब नीरज जी ने इतनी तारीफ कर दी तो हमारे लिए स्थान ही कहाँ रह जाता है .....
हम तो सीखने वालों में से हैं ....
सच्च गज़ब की क़ाबलियत है आप में ....
भर गए बाज़ार नक़ली माल से
लीचियों के खोल में हैं फ़ालसे
वाह क्या बात है ......
सोचता था…ज़िंदगी क्या चीज़ है
उड़ गया फुर से परिंदा डाल से
बहुत खूब ....!!
बहुत उम्दा...
भाई राजेन्द्र स्वर्णकार जी को मेरा नमस्कार और बहुंत-बहुत बधाई||बहुत ही कम देखने को मिलती है इस तरह की रचनाएं जिसमें भाषा, भाव और शिल्प तीनों का उम्दा संगम देखने को मिलता है|पहली पंक्ति से ही कविता प्रभावित करती है|
आपका बहुत-बहुत स्वागत और आभार इतनी उम्दा रचना से रूबरू करवाने के लिये|कोटिश: आभार ।।
वैशाख ॠतु भा गई !
बढ़िया!
ग़ज़ल खूब कही आपने...
भर गए बाज़ार नक़ली माल से
लीचियों के खोल में हैं फ़ालसे
वैशाख ऋतु का काव्य चित्रण बेहद प्रभावी है जो मन को भा गया । और गजल का एक - एक लफ्ज उमदा है । वाह क्या लाइन है कि --
इंक़लाब अंज़ाम दे आवाम क्या
ज़िंदगी उलझी है रोटी-दाल से
शाइरी करते अदब से दूर हैं
चल रहे राजेन्द्र टेढ़ी चाल से
और आखिर में सानिया की शादी की बात कि --ओ के कर गई बा-- भारत छोड पाक जा बैठी बा --- वाकई राजस्थान क्या भारतभर के नौजवानों को आज तसल्ली भरे शब्दों की जरूरत है ।
मोट्यारां रो काळजो , रैय - रैय ' कुरळाय !
सो'णी हिरणी - चिड़कली … हाथां निकळी , हाय!!
सो वही बात है भारत के नौजवानों -- चिडिया चुग गई खेत , अब पछताय होत का ----
Rooi mai sooi.. aap ki rachana yaad aagayi..best wishes for your new journey in web world..welcome sir.. i wish you a very success for your writting..
bhai rajender ji,
aap khoob likhte han or khob hi badhiya likhte hain.aapka lekhan mujhe bahut ruchta hai.apne deevanon ki suchi me mera bhi name likh lo.
achhe or satat lekhan ke liye badhai !
vaisakh to is bar do bataye hain jyotishiyon ne.to kya do mahine tak kavi vaisakh par likhenge?lage raho!aap ke pas to shabd bhandar hai akhoot!
"भूल कर सिद्धांत समझौता किया
अब हरिश्चंदर ने नटवरलाल से"
क्या शेर कहा है राजेन्द्र जी...भई वाह-वाह! कमाल के काफ़िये और एकदम अनूठे तेवर से लैस ग़ज़ल...
गीत भी खूब भाया। एक पोस्ट में एक ही रचना लगाते तो हम पाठकों का ध्यान न भटकता...
एक टिप्पणी भेजें