मेरी सैंकड़ों कुण्डलियों में
साहित्यिक गैंग , गुटबंदी - लॉबियों और साहित्य में मिलीभगत पर व्यंग्यात्मक कुण्डलियों की एक लम्बी शृंखला भी रच रखी है मैंने ।
समय समय पर इन कुण्डलियों के सदुपयोग के अवसर आते हैं …
मित्रों !
आप भी अपने आस पास की पहचानी - अनजानी
साहित्यिक घटनाओं - दुर्घटनाओं से मिलान करते हुए
इन पांच कुण्डलियों का जी भर आनन्द लें …
बड़ा सरल यह काम
नाम कमा तू साथ ही , कमा मुफ़्त में दाम !
कब्जा कर अनुदान पर , कभी हड़प इन्आम !!
कभी हड़प इन्आम , यार , कवि - शायर बनजा !
इधर - उधर जितना मिले , निर्लज हो ' चरजा !!
क़लमघिसाई कर फ़क़त , बड़ा सरल यह काम !
दाम भी मिले मुफ़्त में हो जाता है नाम !!
समय समय पर इन कुण्डलियों के सदुपयोग के अवसर आते हैं …
मित्रों !
आप भी अपने आस पास की पहचानी - अनजानी
साहित्यिक घटनाओं - दुर्घटनाओं से मिलान करते हुए
इन पांच कुण्डलियों का जी भर आनन्द लें …
बड़ा सरल यह काम
नाम कमा तू साथ ही , कमा मुफ़्त में दाम !
कब्जा कर अनुदान पर , कभी हड़प इन्आम !!
कभी हड़प इन्आम , यार , कवि - शायर बनजा !
इधर - उधर जितना मिले , निर्लज हो ' चरजा !!
क़लमघिसाई कर फ़क़त , बड़ा सरल यह काम !
दाम भी मिले मुफ़्त में हो जाता है नाम !!
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
गुणों की किसे गरज
ठोठ - ठगोरे मिल गए ; दोनों के ही ठाठ !
जो पाते औकात बिन , खाते हैं मिल बांट !!
खाते हैं मिल बांट ' गुणों की किसे गरज है ?
योग्य गुणी हो जो भी , किसको कहां हरज है !?
गर्दभ सूने खेत में , लगा रहे ज्यों लोट !
सृजन - क्षेत्र में मौज यूं करे ठगोरे - ठोठ !!
ठोठ - ठगोरे मिल गए ; दोनों के ही ठाठ !
जो पाते औकात बिन , खाते हैं मिल बांट !!
खाते हैं मिल बांट ' गुणों की किसे गरज है ?
योग्य गुणी हो जो भी , किसको कहां हरज है !?
गर्दभ सूने खेत में , लगा रहे ज्यों लोट !
सृजन - क्षेत्र में मौज यूं करे ठगोरे - ठोठ !!
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
सिक्के खोटे
खोटे सिक्कों की जमी , बाज़ारों में धाक !
खरे नोट की काट ली , बीच राह में नाक !!
बीच राह में नाक ; चिल्ल - पों करें अनाड़ी !
मात दे रही यान को आज गद्हा - गाड़ी !!
बनते बुद्धिजीवी जिनको अक्ल के टोटे !
सोने की मोहरों को पीटें सिक्के खोटे !!
खोटे सिक्कों की जमी , बाज़ारों में धाक !
खरे नोट की काट ली , बीच राह में नाक !!
बीच राह में नाक ; चिल्ल - पों करें अनाड़ी !
मात दे रही यान को आज गद्हा - गाड़ी !!
बनते बुद्धिजीवी जिनको अक्ल के टोटे !
सोने की मोहरों को पीटें सिक्के खोटे !!
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
नूंत चेलियां चेले
फ़ोकट का कुछ चाहते अगर हड़पना आप ?
अकादमी का श्वान तक समझो अपना बाप !!
समझो अपना बाप , वो पैसा दिलवा दे !
नूंत चेलियां चेले , आयोजन - ठेका ले ले !!
शायर - कवि सब चूमते आएंगे चौखट !
लूट का हिस्सा दो , फोटो खिंचवाओ फ़ोकट !!
फ़ोकट का कुछ चाहते अगर हड़पना आप ?
अकादमी का श्वान तक समझो अपना बाप !!
समझो अपना बाप , वो पैसा दिलवा दे !
नूंत चेलियां चेले , आयोजन - ठेका ले ले !!
शायर - कवि सब चूमते आएंगे चौखट !
लूट का हिस्सा दो , फोटो खिंचवाओ फ़ोकट !!
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
घर में घुस गए
सूर कबीरा मिल गए , रोते ' बीच बज़ार !
उनके घर में घुस गए कुटिल भांड लठमार !!
कुटिल भांड लठमार , करे साहित्य की दुर्गत !
परिभाषाएं बदल कर सृजन कर दिया विकृत !!
संकट है साहित्य पर … कैसे होगा दूर ?
सिसके कबिरा जायसी तुलसी मीरा सूर !!
सूर कबीरा मिल गए , रोते ' बीच बज़ार !
उनके घर में घुस गए कुटिल भांड लठमार !!
कुटिल भांड लठमार , करे साहित्य की दुर्गत !
परिभाषाएं बदल कर सृजन कर दिया विकृत !!
संकट है साहित्य पर … कैसे होगा दूर ?
सिसके कबिरा जायसी तुलसी मीरा सूर !!
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar
आपके सहयोग और स्नेह के लिए मैं हृदय से आभारी हूं ।
आप अगर हैं सच के साथ
हर साज़िश की होगी मात
आप अगर हैं सच के साथ
हर साज़िश की होगी मात
…मिलते हैं फिर …
35 टिप्पणियां:
पाँचों कुण्डलियाँ किसी न किसी विषय /समस्या पर जबरदस्त कटाक्ष करती हुई हैं.आप की कलम व्यंग्य भी खूब लिखती हैं आज मालूम हुआ.
सभी कुंडलियों में तीखे प्रहार के साथ ,चिंतन भी दिखाई देता है.सभी चित्र रचनाओं के पूरक भी हैं.
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बहुत ही अच्छी प्रस्तुति.
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गुणों की किसे गरज है 'के ऊपर लगा चित्र बहुत समय ले रहा है दिखने में ..कृपया चित्रों से आकार थोडा छोटा रखा करें जिससे पेज लोड होने में समय कम लगे...:)
शेष चित्र चयन अच्छा लगा,खासकर आखिरी स्मायली वाला.
भाई राजेंद्र जी आपकी कुंडलियाँ पढ़ते पढ़ते काका हाथरसी की याद आ गयी...इनमें भी वो ही मारक क्षमता और हास्य मिश्रित व्यंग का अद्भुत प्रदर्शन...वाह...वा...वाह...आनंद आ गया...और इनका प्रस्तुतीकरण तो आपकी पुरानी पोस्टों सा हमेशा की तरह लाजवाब...लेकिन इस बार एक लाजवाब और स्वीकार करें...याने डबल लाजवाब....:))
नीरज
पढ़कर कुण्डलियाँ हुआ, अंतस में उल्लास,
प्रतिभाओं का कोष ye, रखे रहो बस पास.
रखे रहो यूं पास, हमेशा रंग जमाओ,
इक दिन जीवन में उत्तम सम्मान भी पाओ.
इसी तरह के छंद रचें सुन्दर बढ़-बढ़ कर.
मजा सभी को आएगा कुण्डलियाँ पढ़ कर.
बधाई..लेकिन तकनीकी-दृष्टि से मुश्किल हुई पढ़ने में फिर भी पढ़ लिया, अच्छा लगा.
सभी में बहुत सॉलिड व्यंग है । लेकिन आखिर वाला तो कहर बरसा रहा है ।
बढ़िया ।
पढ़ के सारी कुण्डलियाँ, मन में उठा विचार
कितना सक्षम वार है, इस लेखन में यार..
-बहुत शानदार!
सभी कुण्डलिया बहुत अच्छी लगीं!
--
इन्हे पढ़ने की उत्सुकता तो मन में इसलिए भी थी कि लोग कुण्डलिया छन्द को छक्के लिख कर ही इतिश्री कर देते हैं! परन्तु आपने पूरे छंद में इसकी मर्यादा को निभाया है!
--
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
sabhi kundaliyaaN ek se badh kar ek hain.... vyangya aur ktaaksh ka adbhut sangam... waah !
hmaare aas-paas hi faili visangatiyoN ka badhiyaa chitran !!
तमाचे लगाती कुंडलियाँ पढ़कर एक शे'र याद आया...
यहाँ शोहरत परस्ती है, हुनर का अस्ल पैमाना
इन्हीं राहों पे शर्मिन्दा रहा है मुझसे फन मेरा...
कुंडलियों में बहुत सटीक बातें कह गए साहब..
यूँ मान लीजिये की इन पांच कुंडलियों से व्यवस्था और समाज दोनों के ही करारे तमांचे जड़े हैं आपने.................... अगर व्यवस्था में खोट है तो उसे बिगड़ने में भी हमारा ही हाथ है.................. लाजवाब हैये
सभी कुण्डलिया बहुत अच्छी लगीं!
बहुत रोचक और सुन्दर अंदाज में लिखी गई कुंडलियाँ .....आभार
अरसे बाद कुण्डलियॉं पढ़ीं, शायद 1971 के बाद पहली बार। गहरा कटाक्ष है। कटाक्ष में दो स्थितियॉं होती हैं, एक होती है प्रतिक्रियास्वरूप जो व्यक्तिगत बदलाव के लिये काम करती है, दूसरी होती है जन-जागरण के लिये; व्यापक बदलाव के लिये। जो साहित्य व्यापक सकारात्मक बदलाव ला सके इतिहास में स्थान वही पाता है। सकारात्मक बदलाव के लिये लिखते रहें। बदलाव जरूर आयेगा।
गजब ढा दिया आपने, और क्या कहें?
--------
व्यायाम और सेक्स का आपसी सम्बंध?
अब प्रिंटर मानव अंगों का भी निर्माण करेगा।
bhai rajendra ji , bahut bahut maza aaya kundliyan padh kar. bahut dino baad aapke blog pe tippani k liye maafi chhunga. par is baar ki post ne majboor kar diya muje. badhai
bhai rajendra ji , bahut bahut maza aaya kundliyan padh kar. bahut dino baad aapke blog pe tippani k liye maafi chhunga. par is baar ki post ne majboor kar diya muje. badhai
ek baat or kahunga ki is baar aapki post bahut se sahityakaaron ko naaraj kar degi. (jo sirf jaankar hone ka dam bharte hai}
par chinta na karen.. imandaar logo ki tippniya jaroor aayengi. baki log kya hai khud hi samajh jayenge.
"घर में घुस गए"
शीर्षक से जो कुंडलि है इस का जवाब नहीं
बिल्कुल सही है ,जो सच्चे साहित्यकार हैं उन के फ़न पर लोगों की नज़र या तो पड़ती नहीं या देर में पड़ती है ,
सच परिभाषाएं बदल गईं हैं
kitne dino se aisa kuchh doondh raha tha...saadh poori hui.
aur wakai, jabardast likha hai apne.
paanchon ekdam karari hain.
badhai ho
Rajendra ji, bade bade kundali me siddhhast logo ki kundaliyan padhi hai mujhe bahut achcha lagata hai aaj aapki yah rachana bhi aanand dai hai..badhai rajendraji
पाँचों कुण्डलियाँ किसी न किसी विषय ,समस्या ,और नअहेल ओह्देदारो पर गहरा कटाक्ष करती है, भाई मज़ा गया.......
ये आप की क़लम की तक़त है इसके लिये मैं यही कहूंगा .... अल्लाह करे ज़ोरे क़लम और ज़ियाद.
आमीन .
Vyangya SE bharpoor aapkee
kundliyan padh kar bahut achchha
lagaa hai.Bhavishya mein bhee
aesee kundliyan likhiyega.khoob
manorajan hua.Badhaaee.
दिलों को स्वर्ण स्वर्ण कर दिया।
आवश्यकतानुसार इन्हें अपने व्यंग्यों में अवश्य शामिल करना चाहूंगा। अगर अनुमति हो तो ...
विकृतियों और तथाकथित ठेकेदारों पर तमाचा मारती पांचों कुण्डलियां जोरदार हैं. वाकई अरसे बाद कुण्डलियां पढ़ने को मिली हैं. हमारे नगर के वरिष्ठ कवि प्रताप जी की पंक्तियां देखें-
तुम कवि कम हो पण्डा ज्यादा/कविता कम हथकण्डा ज्यादा/सच्ची कहियो कैसे है गये/गोबर कम अरू कण्डा ज्यादा.
मजेदार कुण्डलियों के लिय जोरदार बधाई.
kabhi to
इस बार पढ़ें हरजीत की पांच ग़ज़लें
बहुत रोचक और सुन्दर अंदाज में लिखी गई कुंडलियाँ .....आभार
हैरान हूँ.....!!
ये सुरों के सरताज कितना हुनर समेटे हैं अपने अन्दर .......
अभी सोच ही रही थी की आज पहले आपकी पोस्ट पे जाउंगी कि आपकी प्यारी सी टिपण्णी नज़र आ गयी .....
आप व्यंग भी लिखते हैं आज पता चला ......
वह भी इतने खूबसूरत तरीके से समाज की फैली बुराइयों पर तीखा प्रहार करते हुए .........
कभी हड़प इनआम , यार कवि-शायर बन जा .....
साहित्य जगत का भीतरी रूप दिखाती पंक्तियाँ ...जिसकी पहुँच है ये साहित्यिक पुरस्कार भी उन्हें ही नसीब होते हैं ...
'ठोठ-ठगोरे' की विलक्ष्ण उपमा ......
सोने की मोहरों को पीटें सिक्के खोटे....स्वर्णकार की मोहरों के आगे भला किसी की क्या बिसात .....
अकादमी का स्वान तक समझो अपना बाप ....
नूंत चेले ,चेलियाँ आयोजन - ठेका ले लें
जीवनका कटु अनुभव दिख रहा है इन पंक्तियों में ....
सच है साहित्य की इस दुर्गति पर .....
सिसके कबीरा जायसी तुलसी मीरा सूर
ख़ामोशी की तस्वीरों के साथ सबको खामोश करती आपकी रचनायें .....आपकी बेमिसाल प्रतिभा की परिचायक हैं .....!!
...बेहतरीन !!!
सच है साहित्य की इस दुर्गति पर .....
सिसके कबीरा जायसी तुलसी मीरा सूर
kisi ki kyaa kahein...?
hamein khud kuchh nahin soojh rahaa.
इधर उधर जितना मिले निर्लज हो चर जा।
आज के आदमी की सटीक कुन्डली ।
सूर कबीरा मिल गये रोते बीच बाज़ार
उन के घर मे घुस गये कुटिल भाँड लठमार
मुझे तो लगता है आज के इन्सान को देख कर भगवान भी रोते होंगे आज उनके नाम पर कितना गंदा व्यापार हो रहा है। बहुत अच्छी लगी आपकी कुन्डलियाँ आपकी कलम को नमन।
काव्य के छः प्रयोजनों में 'अर्थ' कमाना भी शामिल है. यह मुफ्त का पेशा नहीं और ना ही शौकिया किया जाने वाला करतब है मित्र.
एक श्लोक है : "काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षते. सद्यः परनिर्वृत्तये कांतासम्मितयोपदेशयुजे."
व्यंग की दृष्टि ठीक होनी चाहिए.
ये तो आप भी जानते है कि लेखन को कितना समय दिया जाता है. उसका मूल्य आप [स्वर्णकार] नहीं आंकेंगे तो कौन आंकेगा. 'ये कलमघिसाई सरल नहीं' इसके प्रचार की आप से अपेक्षा की जाती है. हाँ अभ्यस्तों के लिये थोड़ी सरल ज़रूर हो जाती है. फिर भी अपने काम को यूँ हलके में नहीं लिया जाना चाहिए.
..... खैर, आपकी कुंडलियों ने आकर्षित किया. केवल 'फ़ोकट' वाली कुण्डली ने बंधा मज़ा खोल दिया.
वाह वाह ... आपने काका की याद करा दी ....
बहुत तीखा व्यंग है सब में ....
प्रिय राजेन्द्र जी,
पांचों कुंडलियों में व्यंग्य की धार बहुत पैनी है. सभी कुण्डलियां समकालीन साहित्यिक दुनिया में व्याप्त विसंगतियों पर निर्मम प्रहार करती हैं.ठोठ ठगोरों के ठाठ तो निराले हैं.बधाई.
माधव नागदा
अल्पनाजी , नीरजजी , गिरीशजी , डॉक्टर साहब , समीर जी ,
शास्त्री जी , मुफ़्लिस जी ,
मनु भाई , अमित भाई , संजय भाई , विनोद भाई ,
अविनाश चंद्र जी , भास्कर जी , "रजनीशजी" 'उदय जी' ,
इस्मत ज़ैदी साहिबा , निर्मला मौसीजी , हीर जी , नीलम जी ,
दिगम्बर नासवा जी , अजमल खान साहब , संजीव गौतम जी ,
आदरणीय प्राण शर्मा जी , श्रद्धेय माधव नागदा जी …
आप सबका हृदय से आभार !
अविनाश वाचस्पति जी , मेरा सौभाग्य , इन्हें अपने व्यंग्यों में अवश्य शामिल कीजिए …
बस , सूचित अवश्य करने की कृपा करें ।
Anonymous ji , आप अपने परिचय के साथ प्रकट होते तो मेहरबानी होती ।
वैसे आपका भी शुक्रिया ।
आपकी भविष्यवाणी कुछ सच होती लगी …
आदरणीय तिलकराज जी , सकारात्मक बदलाव के लिये लिखते रहें। बदलाव जरूर आयेगा।
आपके अपनत्व भरे निर्देश पर चलने का प्रयास करूंगा । आभार !
प्रतुल जी , आप जैसे विद्वान और गहन अध्ययनशील मेरे ग़रीबखाने पर पहली बार पधारे ,
हार्दिक स्वागत है ।
"व्यंग्य के तीर जिस पर चलते हैं , सिर्फ़ वह तिलमिलाता है ,
बाकी लोग उसे भांपते हुए आनन्द लेते हैं "
… यह सुना था अब तक ।
बंधु , मेरे काम को मैं हल्के में ले भी नहीं रहा ।
बहरहाल , आप सबने अपना अमूल्य समय दे'कर मेरा मान और उत्साह बढ़ाया ,
तदर्थ… धन्यवाद ! आभार !!
स्नेह - सौहार्द बनाए रख कर , आते रहें , कृपया !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
राजेंद्र भाई
देर से पहुंचा उसके लिए माफी चाहता हूं
सारी कविताएं अच्छी है
और कुछ भी आपके ब्लाग को खंगालकर पढ़ता रहा.
आपने मुझसे ई-मेल के जरिए एक जानकारी चाही थी और वह यह कि मैं कहां का सोनी हूं
भाई बिल्कुल भी अन्यथा मत लीजिएगा
हकीकत तो यह है कि जाति पर मेरा यकीन ही नहीं है.
मैं सोनी समाज के किसी भी कार्यक्रम में कभी कहीं आता-जाता भी नहीं.
ऐसा भी नहीं है कि मैं समाज के लोगों से चिढ़ता हूं या नफरत करता हूं लेकिन बचपन से ही मेरा यकीन खंड़-खंड बंटकर काम करने में नहीं रहा है. हर समाज का अपना दायरा होता है.
अपने नाम के आगे सोनी इसलिए लगाता हूं क्योंकि यह नाम मेरे पिता का दिया हुआ है। मां और पिता के दिए हुए नाम के साथ भला मैं कैसे छेड़छाड कर सकता हूं।
बहरहाल आप मेरे ब्लाग पर आए इससे मुझे बल मिला. अच्छा लगा.
आपका स्नेह बने रहेगा इसका मुझे यकीन है.
आपकी सुविधा के लिए सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैं हिन्दुस्तान का सोनी हूं. हिन्दुस्तान जो बहुत बड़ा है.. इतना बड़ा जिसमें छत्तीसगढ़ भी शामिल है वहां की राजधानी रायपुर में रहता है राजकुमार सोनी.
आपकी रचना में भाषा का ऐसा रूप मिलता है कि वह हृदयगम्य हो गई है।
राजेंद्र जी
वाह, बहुत रोचक और सुन्दर.
आभार
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