बदल बदल लिबास परेशान हो गया
चेहरों पॅ चेहरे ओढ़ के हैरान हो गया
ख़ुद की तलाश में लहूलुहान हो गया
इंसान खो गया
मैं हिंदू सिक्ख बौद्ध पारसी मैं जैन हूं
इंसानियत भुला' मज़े में हूं , बा-चैन हूं
ख्रिस्तान हो गया मैं , मुसलमान हो गया
इंसान खो गया
अहूरमज़दा वाहेगुरु सांई और ख़ुदा
अरिहंत यहोवा मसीहा गॉड सब जुदा
अल्लाह कहीं और कहीं भगवान हो गया
इंसान खो गया
त्रिपिटक आगम रामायण भागवत गीता
वेद गुरुग्रंथसाहिब ज़ेंदअवेस्ता
बाइबिल किसी की किसी का कुर्आन हो गया
इंसान खो गया
राम कृष्ण बुद्ध महावीर और ईसा
जरथ्रुस्ट मोहम्मद बहाउल्लाह और मूसा
हर नाम अलग दीन-ओ-ईमान हो गया
इंसान खो गया
अयोध्या मथुरा लुम्बिनी वैशाली बैतलेहम
मदीना मक़्क़ा रोम वेटिकन येरुशलम
बंट बंट कॅ खंड खंड ये जहान हो गया
इंसान खो गया
धर्मांध उग्रवादी मुज़ाहिद - ओ ज़िहादी
चरमपंथी सुन्नी - शिया और तिलकधारी
दहशतपसंद जंगजू तालिबान हो गया
इंसान खो गया
रगों में है लहू न जाने कितने रंग का
क्या ख़ूब अलग ही नमूना अपने ढंग का
शैतान का लिखा हुआ दीवान हो गया
इंसान खो गया
केरल असम बिहार महाराष्ट्र अरुणाचल
गुजरात तमिलनाडु पंजाब झारखंड
कश्मीर आंध्र गोवा राजस्थान हो गया
इंसान खो गया
चीन-ओ-अरब अमेरिका इंग्लैंड स्वाज़ीलैंड
फ़िनलैंड न्यूज़ीलैंड नैदरलैंड थाईलैंड
स्लोवाक-चैक हिन्द-पाकिस्तान हो गया
इंसान खो गया
आंग्ल ग्रीक फ़्रेंच चीनी डच इटेलियन
सिंहली अरबी रुसी बर्मी नॉर्वेज़ियन
सबको ही अपने नाम पर गुमान हो गया
इंसान खो गया
संथाली उड़िया मैथिली पंजाबी तेलुगु
बंगाली सिंधी डोगरी उर्दू तमिल तुलु
क्यूं न एक नाम प्रीत की ज़ुबान हो गया
इंसान खो गया
-राजेन्द्र स्वर्णकार
(c)copyright by : Rajendra Swarnkar
53 टिप्पणियां:
राजेन्द्र स्वर्णकार जी
वक़्त की नजाकत को समझते हुए बहुत सुंदर शव्दों में आपने भावों को अभिव्यक्त किया है ..
कविता की हर एक पंक्ति दिल पर असर कर गयी ...इंसान सब कुछ तो बन गया ...पर इंसान नहीं ..बहुत -बहुत ..शुक्रिया
उपाधियों के इन लिबासों बीच मैं, न जाने कहाँ खो गया।
बेहतरीन कविता कई अलंकारो से सजी हुई
इस दुनिया मे आदमी तो बहुत है पर इंसान खत्म हो गये है
बधाई
एक अनमोल पर कटु सत्य है यह, जिसे बार-बार उजागर करना होगा, इंसान जो कहीं गुम हो गया है उसे हर किसी को खोजना होगा ! आप इन झकझोरने वाले शब्दों के लिये बधाई के पात्र हैं.
बंट बंट के खंड खंड ये जहान हो गया ...इंसान खो गया ...भावमय करते शब्द बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ....आभार ।
rashtriya ekta ke khatir ek umda rachna.........bahut bahut badhai sir!!
aur ant me jo aapni HTML lagayee hai.....subhan allah!!
सच ही आज इंसान और उसकी इंसानियत खो गयी है ....वह बाँट चुका है जाति धर्म भाषा के नाम पर ...आच्छी प्रस्तुति
sabkuch rah gaya
bas insaan kho gaya
शुरू में तो मैं तस्वीर पे ही अटका रहा...
आज के परिवेश में तो भाई इंसान की परिभाषा ही अलग हो गयी है :)
'insaan kho gaya' aapke bhavuk hriday ki vedna ki sarthak abhivyakti hai.
बेहद कडवा सच है यह, पर गया कहाँ इसकी भी तो खोज खबर लेनी होगी अब !
BEHAD KAREEB SE MAHSOOSI GAI RACHNA.DIL KA DARD DIKHATI HUE.
राजेंद्र जी
बड़ी साफगोई से आपने अपने भावों को कविता के रूप में उड़ेला है........ सशक्त कविता.
बहुत कटु सत्य को बड़े ही प्रभावी ढंग से दर्शाया है..आज के समय में इंसान को ढूंढना शायद सबसे मुश्किल हो गया है..बहुत सटीक अभिव्यक्ति..आभार
kahna sahi hai aapka naye rango me dhalkar,
aadmi nahi raha hai wo shaitan ho gaya,
insan kho gaya-insan kho gaya....
marmik abhivyakti..
बहुत ही अच्छी कविता... बहुत ही अच्छे भाव...
इंसान वाकई कहीं खो गया है और इंसानियत भी भूल गया है...
बंट बंट के खंड खंड ये जहान हो गया ...इंसान खो गया, बेहतरीन रचना। बधाई।
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी इस रचना का लिंक मंगलवार 30 -11-2010
को दिया गया है .
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
भाई जी आपकी कलम को नमन करता हूँ...इतनी अच्छी और सच्ची रचना पढ़ कर दिल आपके प्रति श्रधा से झुक गया है...वाह...
नीरज
बहोत ही सुन्दर प्रस्तुति
वाह....
क्या बात है..
कविता की हर पंक्ति कितनी सार्थक है....
इस पर कुछ कहना तो चाहता हूँ पर शब्द साथ छोड़कर जाने लगे हैं कहते हैं हममे इतनी सामर्थ्य नहीं की इसपर कुछ टिपण्णी कर सकें |
मेरी शुभकामनायें स्वीकार करें.....
rajendra ji.
bilkul sahi bhaw. khud ko sochne par majboor karti hui rachna. aabhar.
इंसान तो बाद में अभी तो मैं ही शब्दों के इस माया जाल में खो गयी हूँ
कटु सत्य का बेबाक प्रकटीकरण... आपका अपना अंदाज है भैया... बधाई.
"पंथ कोई ऐसा चलाया जाय
इंसान को इंसान बनाया जाय."
सार्थक और उम्दा प्रस्तुती. सच्चाई बयान करती आपकी ये रचना बहुत अच्छी लगी.
इंसान को खोजने
एक इंसान निकला है,
ये क्या कम है आज
आपकी शक्ल में मिला है !
SUNDAR BHAVABHIVYAKTI KE LIYE
AAPKO DHERON BADHAAEEYAN AUR
SHUBH KAMNAAYEN .
बेहतरीन प्रस्तुति .गहरे जज्बात के साथ लिखी गई बेहतरीन रचना
राजेन्द्रजी,
बडी भयानक तस्वीर के बाद बेहद गम्भीर रचना..इस पूरे मायामंडल को स्पष्ट कर देती है।
काफी मेहनत और परिपक्व सोच का नतीज़ा है आपकी यह रचना..मुझे इंसान खोया हुआ नहीं..सोया हुआ ज्यादा लगता है। आपकी रचना भी तो उसीको जगाने के लिये है। बहुत सटिक और मर्म तक पहुचने वाली रचना है।
बेहद प्रभावी और प्रासंगिक प्रस्तुति है.....बेहतरीन... कमाल की पंक्तियाँ साझा की आपने..... आभार
बेहतरीन कविता कई अलंकारो से सजी हुई
इस दुनिया मे आदमी तो बहुत है पर इंसान खत्म हो गये है
बधाई
इंसान सच में खो गया ... किसी ने बहुत खूब कहा है " खुदा तो मिलता है ... इंसान ही नहीं मिलता " .. बेहतरीन प्रस्तुति राजेंद्र जी ...
प्रभावशाली सुन्दर बेहतरीन रचना के लिये बधाई।
बेईमानों की बस्ती मे ईमान कहाँ मिलता है
लोगों की इस भीड मे इन्सान कहाँ मिलता है।
धन्यवाद।
करारा प्रहार, आभार.
वाकई इंसान ही नहीं मिलता ...हार्दिक शुभकामनायें !
इस विस्तृत और खुबसूरत कविता के लिए अनेक आभार ...
सच में इंसान कहीं खो गया है ... इंसानियत भूल गया है ...
राजेन्द्र जी , आपकी यह विश्वस्तरीय रचना पढ़कर आपकी विशाल प्रतिभा का बोध होता है ।
देशों , प्रान्तों , मज़हबों और सम्प्रदायों में बंटा हुआ मनुष्य आज वास्तव में एक मशीन बन कर ही रह गया है ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ।
बहुत सुन्दर रचना!
बहुत सुन्दर ,प्रेरणाप्रद लिखा आपने! बधाई !
सचमुच, अपनी पहचान को सुरक्षित रखते हुए इन्सान बने रहने में ही मानव जीवन की सार्थकता है!
लाजवाब प्रस्तुति . कहने को शब्द नहीं आज मेरे पास .......
कमाल का लिखते है आप,अशब्द हुं मै आज.........
वाह वाह वाह वाह वाह !!!!
क्या बात कही आपने....
लाजवाब भाव...लाजवाब शिल्प...लाजवाब प्रवाह...और लाजवाब प्रेरणा !!!!
मन आनंदित हो गया इस अद्वितीय रचना को पढ़कर..
बहुत बहुत आभार !!!!
बाऊ जी,
नमस्ते!
वैसे मुझ फूहड़ तुक्बंदिये को क्या मालूम!?
लेकिन ज़ाहिर है आपकी कविता कंटेंट के स्तर पर तो उत्तम है ही, शब्द संयोजन, लय और प्रवाह के मामले में भी बेहतरीन है.
चलो इंसान को इंसान बनाया जाए....
सादर,
आशीष
--
नौकरी इज़ नौकरी!
पूरे विश्व को चित्रित कर दिया है आपने कविता में ,ये जरुर है की इन्सान खो गया है ,पर आओ हम ढूंढे वो हमारे आसपास ही तो है |
आपकी रचनाये महज रचनायें नहीं होती .....
समाज को आईना दिखाती हैं ..... जीना सिखाती हैं ...रहना सिखाती हैं .....
रचना तो इंसान का रूप दिखाती ही है ....ऊपर का चित्र और नीचे युद्धरत इंसानों की तस्वीर भी ज़िन्दगी को आईना दिखाती है .....
ये आपसी बैर ,अहंकार ,भेद- भाव , मजहबी झगड़े ...इनका श्रेय क्या होगा आपने बखूबी दर्शा दिया है ....
रचना में सभी धर्मों के प्रति आपकी आस्था आपकी अंतरात्मा की शुद्धत़ा को दर्शाती है .....
और आपके ज्ञान ...विचार...सद्भावना का कोई सानी नहीं ......
आपसे बहुत कुछ सीखना है अभी .....!!
aaj bhale hi insaan tarakee ke jhande buland kar raha hai lekin insaaniyat dheere-dheere kam hoti jaa rahi hai.. samaj ka katua magar sachha chalchitra saa dikha diya aapne... saarthak prasuti ke liye aabhar
बहुत खूब...अब इन्सान रहे ही कहाँ. हर कोई आपने दायरों में कैद होकर रह गया है.
खेद है कि समाज की सच्चाई कुछ यूं ही है
राजेन्द्रजी,
आपकी टिप्पणी के लिए शुक्रिया! जी हाँ कुछ जिंदगी की जद्दो जहद में उलझे हुए थे !
आपने सच कहा है इंसान आज कहीं खो गया है!
पंथ कोई ऐसा चलाया जाय
इंसान को इंसान बनाया जाय
काश ये हो पाए ....
खोये हुए इंसान की पहचान जरूरी है.
सुन्दर रचना .. परिभाषाओं को रेखांकित करती सी
वाह क्या बात है। इंसान खो गया। कहां खो गया जी, बस जरा बंट गया है। अब बंटेगा तो कुछ खोएगा ही। दरसअंल इंसान बदला तो है, पर इंसानियत खो गई है। पर जी जितना बदल गया है बेड़ा गर्क करने के लिए कम नहीं है। पर बंटना तो जाने कितनी सदियों तक चलता रहेगा। न पहले एक रहा है न कभी एक रहेगा। एक ही हाड़ मांस मज्जा के बने इंसान में इतनी बाहरी विविधता है कि मन से भी वो बंट गया है।
इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बहुत बहुत बधाई. कहते है कि दुनिया के हर गोशे में है तू मौजूद ....तो फिर कही मंदिर कही मस्जिद और कही गिरिजा घर क्यूं है?
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